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विवाह करने वालों के लिए चितौनी ककेप 176

युवक प्रवृति पर अधिक विश्वास करते हैं.तरुणों को बहुत ही सरलता से अपने आप को नहीं सौंप देना चाहिए और न प्रेमी के मोहने वाले वाह्य स्वरुप का सरलता से दास हो जाना चाहिए.प्रेम जिसका आधुनिक काल में प्रबन्ध किया गया है एक बनावटीपन और धोखे की व्यवस्था है जिसके साथ परमेश्वर की अपेक्षा आत्माओं के शत्रु का अधिक सम्बन्ध है.यदि कहीं सदविवेक की आवश्यकता है तो वह यहीं पर है परन्तु यथार्थता यह है कि इस विषय में इसका अधिक सम्बन्ध नहीं है. ककेप 176.5

कल्पना तथा प्रेम पीड़ित मनोविचार से इस प्रकार बचना चाहिये जिस प्रकार कोढ़ से.इस प्रकार में संसार के कई युव स्त्री और पुरुषों में सदाचार की कमी है,इस लिए अत्यधिक सावधानी की आवश्यकता है.वे जिन्होंने एक सदाचारी अपनाया है अन्य सद्गुणों से रहित होते हुए भी नैतिक रुप में वास्तविक मूल्यवान हो सकते. ककेप 176.6

संसार के इस समय युवकों के धार्मिक अनुभवों में निम्न कोटि की रसिकता का मिश्रण होना है.मेरी बहिन परमेश्वर चाहता है कि आप परिवर्तन हो.मेरी आप से विनय है कि अपने अनुराग के स्तर को ऊपर  उठाएं.अपनी मानसिक और शारीरिक शक्तियों को अपने उद्धाकर्ता का जिसने आप को मोल लिया है सेवा में लागइए अपनी भावनाओं व विचारों को पवित्र कीजिए, आप का काम परमेश्वर में किए जाएँ. ककेप 176.7

शैतान के दूत ऐसे लोगों की ताक लगाए रहते जो रात्रि का बहु भाग प्रेमानुराग में बिताते हैं.अगर उनकी आंखे खोल दी जाए तो वे देखेंगे कि स्वर्गदूत उनके वचन और कर्मों को लिख रहा है.स्वास्थ्य और शीलता के नियम का अपहरण किया जा रहा है.यह तो अति उपयुक्त होगा कि ये प्रेमानुराग में बिताए जाने वाले घंटे जो विवाह के पूर्व बितात जाते हैं वे विवाहोपरान्त बिताए जावें. बहुधा तो यह देखा गया है कि विवाह के बाद प्रेमानुराग का अन्त हो जाता है. ककेप 177.1

शैतान को भली भांति विदित है कि किन किन बातों पर हाथ लगाए और वह आत्माओं के विनाश कार्य में उन्हें फंसाने के लिए अनेकों दुराचारों का अविष्कार करता है.प्रत्येक कदम पर वह आंख लगाकर अनेकों सलाहें पेश करता है.बहुधा पवित्र वचन के बदले ये सलाहें ग्रहण कर ली जाती है.असावधना युवक-युवतियों को फंसाने के लिए ये जाल बड़ी सावधानी से बुना जाता है.इसे बहुधा प्रकाश के आवरण में लपेटा जाता है.वे जो इसके शिकार बन जाते हैं भीतर प्रवेश कर के अनेको पीड़ाओं का सामना करते हैं इसके फलस्वरुप हर स्थान में मनुष्य का विध्वंश होता है. ककेप 177.2