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सहयोग ककेप 85

नये क्षेत्रों में जब संस्थाएं खोली जाती हैं तो बहुधा यह जरुरी होता है कि जिम्मेदारी ऐसे लोगों के ऊपर रखी जाती है जो काम की विभिन्नता से अपरिचित होते हैं. ये लोग बड़ी असुविधाओं के अधीन काम करते हैं और जब तक उनका और उनके सहकारियों का प्रभु की संस्थाओं में नि:स्वार्थ हित न हो तो ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जायगी जिससे उसकी उन्नति में बड़ी बाधा पड़ जायगी. ककेप 85.7

बहुत से लोग सोचते हैं कि जिस शाखा में वे काम कर रहे हैं वह पूर्ण:उन्हीं का है और उसमें किसी को सुझाव पेश करने का हक नहीं है. यही लोग हो सकता है कि काम करने के उत्तम ढंग से अनभिज्ञ हों तोभी यदि कोई उनकी परामर्श देने की चेष्टा करे तो वे क्रोधित हो जाते हैं और अपने स्वतंत्र विवेक के समर्थन करने के लिये भी निश्चित हो जाते हैं. फिर कुछ कर्मचारी हैं जो अपने सहकारियों की सहायता तथा शिक्षण करने को राजी नहीं है. और जो हैं कम अनुभवी हैं और नहीं चाहते कि उनकी अज्ञानता का किसी को ज्ञान हो.वे समय और सामान दोनों की हानि उठाकर भूल करते है क्योंकि वे परामर्श लेने से शर्माते हैं. ककेप 86.1

कठिनाइयों के कारण का पता करना कठिन नहीं है.ये कर्मचारी स्वंतत्र धागे की भाति रहे जब कि उन्हें अपने को बुनकर एक नमूने थान में मिल जाना चाहिये था. ककेप 86.2

इन बातों से पवित्र आत्मा को दु:ख होता है.परमेश्वर चाहता है कि हम एक दूसरे के विषय में सीखें.अपवित्र स्वतंत्रता हमें उस जगह पहुँचा देती है.जहाँ परमेश्वर हमारे संग काम नहीं कर सकता.इस प्रकार की स्थिति से शैतान अति प्रसन्न होता है. ककेप 86.3

प्रत्येक कर्मचारी की जांच की जायगी कि वह परमेश्वर की संस्थाओं की उन्नति के लिये परिश्रम कर रहा है या अपने हितों का पालन कर रहा है. ककेप 86.4

जो पाप प्रायः निरुपाय तथा असाध्य है वह है अपनी अनुमति का है गर्व.यह सारी बढ़वार को रोकता है.जब किसी मनुष्य के चरित्र में खोट हो कि वह उनको महसूस नहीं कर सकता;जब वह अभिमान में ऐसा डूबा हुआ है कि वह अपने अवगुणों को देख ही नहीं सकता तो उसके हृदय की शुद्धि कैसे हो?’’वैद्य भले चंगों का नहीं परंतु बीमारी के अवश्य है.’’(मत्ती 6:12)जब कोई सोचता है कि उसके आचरण सिद्ध हैं तो उन्नति कहाँ से होगी? ककेप 86.5

जो सम्पूर्ण दय से मसीही है वह खरा भद्र पुरुष है. ककेप 86.6