Loading...
Larger font
Smaller font
Copy
Print
Contents
  • Results
  • Related
  • Featured
No results found for: "".
  • Weighted Relevancy
  • Content Sequence
  • Relevancy
  • Earliest First
  • Latest First
    Larger font
    Smaller font
    Copy
    Print
    Contents

    पाप-स्वीकार

    “जो अपने अपराध छिपा रखता उसका कार्य सफल नहीं होता। पर जो उन को मान लेता और छोड़ भी देता उस पर दया की जाती है।” नीतिवचन २८:१३॥SC 30.1

    ईश्वर की क्षमा प्राप्त करने के उपाय सीधे, उचित और विचारपूर्ण हैं। प्रभु हमें यह नहीं कहता कि हम कुछ ह्रदय विदारक काम कर लें फिर तब कहीं वह पाप क्षमा प्राप्त कर सकेगा। लम्बी और कष्टदायक तीर्थ यात्राओं में पिस जाना हमारे लिए आवश्यक नहीं। इन सब से हमारे पाप की क्षतिपूर्ति न होगी। लेकिन यदि मनुष्य अपने पापों को स्वीकार कर ले और उन से पूरी तरह हाथ धो ले तो उसे करुणाकर का अनुग्रह निश्चय प्राप्त होगा। प्रेरित कहते हैं, “तुम आपस में एक दुसरे के सामने अपने अपने पापों को मान लो और एक दुसरे के लिए प्रार्थना करो जिस से चंगे हो जाओ” याकूब ५:१६। अपने पापों को ईश्वर के सामने स्वीकार करो। क्योंकि वे ही पापों को क्षमा कर सकते हैं। यदि आप ने अपने मित्र अथवा पडोसी का दिल दुखाया है, तो आप का कर्त्तव्य है कि आप अपनी गलती उसके सामने स्वीकार कर लें और फिर तब उसका कर्तव्य हे वह आप को क्षमा कर दे। तब इसके बाद आपको चाहिये कि आप ईश्वर से क्षमा याचना करें क्योंकि जिस भाई को आपने उब्ध किया, वह ईश्वर कि संपत्ति है, और उसे संतप्त कर आपने त्रष्टा और मुक्तिदाता के विरुद्ध पाप किया है। तब यह सारा किस्सा हम लोगों के उस महान मध्यस्थ महायाजक खिष्ट के पास खुलता है जो “सब बातों में हमारी भाई परता तो गया तोभी निष्पाप निकला” और जो “हमारी निर्बलताओं में हमारे साथ दु:खी” भी होता है। इब्री ४:१५। वे सभी बुराइयों को ह्रदय से दूर कर हमें स्वस्थ और पवित्र बना सकता है॥SC 30.2

    अपने अपराधों को स्वीकार कर अपनी आत्मा को जिन लोगों ने ईश्वर पर समर्पित नहीं किया, ऊन लोगों ने क्षमा प्राप्ति की ओर पहला कदम भी नहीं उठाया। यदि हम ने पश्चाताप का वह शोक भी प्रगट नहीं किया जिस शोक के लिए शोक होता ही नहीं, और यदि हमने आत्म-त्याग तथा निस्सहाय हो कर अपनी दुर्बलता पर आठ आठ आँसू रो कर और पप्चरण को धिक्कार कर अपने पापों को स्वीकार नहीं किया; तो हम ने पाप की माफी के लिए कोई वास्तविक उद्योग नहीं किया। और जब कभी उद्योग नहीं किया, तो ईश्वर की शांति भी कभी न प्राप्त की। अपने विगत पापों से मुक्ति न पाने का केवल एक ही कारन हे और वह यह है कि हम अपने ह्रदय को विनीत नहीं बनाते और सत्य के अनुसरण में कार्य करने को तैयार नहीं होते। इस बात पर विशद शिक्षाएँ दी गई हैं। पापों कि स्वीकृति चाहे अकेले में हो, अथवा खुले आम, सदा ह्रदय से प्रेरित रहे और स्वच्छंद, निर्भीक रूप में व्यक्त होवे। पापी को इसके लिए बाध्य करना उचित नहीं। फिर लापरवाही और उदासीन रूप में भी यह अच्छा नहीं। जिन्हें पाप से घृण न मालूम हो उन से जबर्दस्ती पाप की स्वीकृति कराना उत्तम नहीं। वह अपराध स्वीकृति जो अन्त स्थल के कुल किनारों को फोड़ती हुई अबाध गति में फूट पड़ती है अनंत दयामय ईश्वर के पास पहुँच जाती है। स्तोत्रकर्ता ने कहा हे, “यहोबा टूटे मनवालों को समीप रहता है और पिसे हाओं का उद्धार करता है।” भजन संहिता ३४:१८॥SC 30.3

    वास्तविक पाप-स्वीकृति एक विशेष रूप की होती और उस में विशेष विशेष पापों की स्वीकृति होती है। वे ऐसे पाप हो सकते हैं जो केवल ईश्वर के पास ही व्यक्त किये जा सकते हैं; वे ऐसे अपराध हो सकते हैं जिन्हें उन व्यक्तियों के सामने स्वीकार किया जा सकता है जिन पर वे अपराध हुए हों, अथवा वे सार्वजनिक रूप के हो सकते, और तब उसी सार्वजनिक रूप में उन्हें स्वीकार करना भी होगा। किंतु सभी किस्म की स्वीकृति ठीक ठीक, स्पष्ट और साफ हों तथा उस में उन्हीं पापों की मंजूरी हो जिन के कारन आप पापी हुए हैं॥SC 31.1

    शमूएल के समय में इस्त्राएली लोग ईश्वर के विमुख हो गए। वे पाप के परिणाम से यातनाएं भोग रहे थे। क्योंकि उन्हों ने ईश्वर पर से विश्वास उठा लिया था, ईश्वर की उस शक्ति और चातुरी को मिथ्या समझा था जिस से वह राष्ट्रों पर प्रभुत्व रखता है, और ईश्वर अपने शरणागतों की रक्षा और सहायता करता है इस पर भी भरोसा उनका न था। विश्व के महान शासक से वे विमुख हो गए और अपनी पड़ोसी जातियों की तरह ही शासित होने लगे। किंतु शांति प्राप्त करने के पहले उन्हों ने इस प्रकार स्पष्ट रूप में अपराध स्वीकार किया,“हमने अपने सारे पापों से बढ कर यह बुराई की कि रजा मांग है।” १ शमूएल १२:१८। जिस पाप के कारण वे पापी घोषित हुए थे, उसी पाप को उन्हों ने स्वीकार किया। उनकी कृतद्यता ने उसकी आत्मा को पीड़ित किया और ईश्वर से उन्हें पृथक किया॥SC 31.2

    अपराध-स्वीकृति से ईश्वर खुश नहीं होता यदि उसके साथ सच्चा पश्चाताप और सुधार न हो। जीवन में निश्चय रूप से परिवर्तन होना आवश्यक हैं, ईश्वर जिन बातों से खिन्न और अप्रसन्न हों उन्हें छोड़ देना उचित है। यह तभी संभव है जब पाप पर हम सच्चा शोक प्रगट करेंगे। हमारा जो कर्तव्य है वह तो बड़े साफ शब्दों में व्यक्त किया गया है,“अपने को घो कर पवित्र करो मेरी आँखों के सामने से अपने बुरे कामों को दूर करो आगे को बुराई करना छोड़ दो, भलाई करना सीखो आत्म से न्याय करो उपद्रवी को सुधारो अपमूए का न्याय चुकाओ विधवा का मुकद्दमा लड़ो।” यशायाह १:१६,१६। “यदि दुष्ट जन बन्धक फेर देने अपनी लुटी हुई वस्तुएँ भर देने और बिना कुटिल काम किये जीवनदायक विधियों पर चलने लगे तो वह न मरेगा निश्चय जीता रहेगा।” यहेजकेल ३३:१५। प्रायश्चित के बारे पावल ने कहा है,“सो देखो इसी बात से कि तुम्हें परमेश्वर की इच्छा के अनुसार उदासी हुई तुम में कितना यत्न और उजर और रिस और भव और लालसा और धुन और पलटा लेने का विचार उत्पत्र हुआ। तुमने सब प्रकार से यह दिखाया कि इस बात में तुम निर्दोष हो।” २ कुरिन्थियों ६:११॥SC 31.3

    ईश्वर कि पवित्र पुस्तक बैबल में, सच्चा पश्चाताप और नम्रता के जिन आदर्शो का वर्णन किया गया है, वह प्रगट करते हैं कि सच्चे पाप-स्वीकार के आत्मा में पापकृति के लिए कोई बहाना या स्व-निदोंषपन और न्यायीपन की कोई कोशीश नहीं की जाती है॥SC 32.1

    जब पाप नैतिक द्यान को नष्ट के देता है, तब अपराधी अपने चरित्र के दोषों का अनुभव नहीं कर सकता, और न तो अपने कुकृत्यों की गरिमा की ही कल्पना कर सकता हैं। फिर यदि वह पवित्र आत्मा की छत्रछाया में नहीं आता तो वह अपने पापों की ओर से चक्षु-विहीन रहता। ऐसे आदमी के पश्चाताप और अपराध स्वीकृति सच्ची और वास्तविक नहीं हो सकती। वह अपने अपराधों को स्वीकार करते समय प्रत्येक बार अपने कुकृत्य के कुछ बहाने पेश कर देगा और कहेगा कि इन विशेष कारणों और परिस्थितियों के रहने पर वह अमुक काम कमी नहीं करता, अमुक अपराध कभी नहीं करता। और इस लिए वह फिर तिरस्कृत होता है॥SC 32.2

    जब आदम और हवा ने निषिद्ध फल चख लिया तो वे शर्म और भय के मरे काँप उठे। पहले विचार जो उनके मन में आये वे केवल पाप के बहाना ढूँढने और मृत्यु की सजा से बच निकलने के उपाय के ही थे। जब ईश्वर ने उस पाप के बारे पूछा, तो आदम ने अपराध का कारण ईश्वर और सहचरी को बताते हुए उत्तर दिया, “जिस स्त्री को तू ने मेरे संग रहने को दिया उसी ने उस वृक्ष का फल मुझे खाने को दिया सो मैं ने खाया।” उत्पत्ति ३:१२। उस स्त्री ने अपराध का दोष सर्प के माथे रखा और कहा,“सर्प ने मुझे बहका दिया सो मैं ने खाया।” उत्पत्ति ३:१३। आपने सर्प को क्यों बनाया? आपने उसे एदेन की बारी में आने क्यों दिया? ये ही प्रश्न उसने अपने पाप के बहाने में किए, और इस तरह अपने पतित होने का सारा दोष ईश्वर के ही मत्थे रख दिया। आत्म-निर्दोष-करण के भाव का जन्म झूठे पिता से ही हुआ और अपने आप को निर्दोष सिद्ध करने की यह प्रकृति आदम के सारे पुत्रों और पुत्रियों में पी जाती है। इस प्रकार की अपराध-स्वीकृति स्वर्गीय आत्मा द्वारा प्रेरित नहीं और ईश्वर द्वारा मान्य भी नहीं। सच्ची ग्लानी, सच्चा पश्चाताप तो मनुष्य के मुँह से सारे दोष उगला देगा। उन्हें वह अपने मत्थे दिया, और बगैर धोखे बाजी और बहाने बाजी के मंजूर करेगा। उस दिन कर उगाहने हरे की तरह वह भी अपनी आँखे शर्म से नीचे किए हुए चिल्ला उठेगा, “हे ईश्वर! मुझ पापी पर दया कर।” और जो अपने अपराधों को मान लेंगे वे बच जायेंगे क्योंकि यीशु मसीह अपनी रक्त-बूंदों से पश्चातापी आत्मा के उद्धार के निमित्त निवेदन करेंगे॥SC 33.1

    सच्चे प्रायश्चित और विनय के शब्दों के उदाहरण में अपराध-स्वीकृति की वह भावना व्यक्त होती है जिस में अपराधों के लिए कोई बहाना नहीं रहता, और न आत्म-निर्दोषकरण की ही कोई चेष्टा दीख पड़ती है, पावल ने अपने को निर्दोष बनाने की कोई कोशीश नहीं की; उसने अपने पापों का चित्रण सारी कालिमा के साथ किया, और अपने अपराध घटाने की चेष्टा नहीं की। वह कहता है, “मैं ने बहुत से पवित्र लोगों को जेलखानों में डाला और जब वे मार डाले जाते थे तो मैं भी उन के विरोध में अपनी सम्मति देता था। और हर सभा में मैं उने ताड़ना दिला दिया कर यीशु की निन्दा करवाता था यहाँ तक की क्रोध के मरे ऐसा पामल हो गया कि बाहर के नगरों में भी जाकर उन्हें सताता था।” प्रेरित २६:१०, ११। वह यह घोषित करते हिचकता नहीं कि “मसीह यीशु, पापियों का उद्धार करने के लिए जगत में आया जिन में सब से बड़ा मैं हूँ।” १ तीमोथी १:१५॥SC 33.2

    विनीत और टूटे हुए दिल में जब वास्तविक पश्चाताप के शोक भर जायेंगे तो ईश्वर के प्रेम और कलभेरी के अद्वितीय बलिदान की महत्ता पर अपार श्रद्धा भर जावेगी। फिर जैसे योग्य पुत्र अपने स्नेही पिता के सामने सारी बातें खोल कर कह देता है, वैसे ही वास्तविक प्रायश्चित करनेवाला मनुष्य अपने सारे पाप ईश्वर के सामने खोल कर रख देगा। क्योंकि यह लिखा है, “यदि हम अपने पापों को मान ले तो वह हमारे पापों को क्षमा करने और हमें सब अधर्म से शुद्ध करने में सच्चा और धर्मी है।” १ योहन १:६॥SC 33.3

    Larger font
    Smaller font
    Copy
    Print
    Contents