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    पश्चाताप

    मनुष्य ईश्वर के सम्मुख कैसे योग्य ठहरे? पापी कैसे धर्मी बनाया? केवल यीशु खीष्ट के सहारे ही हम ईश्वर के साथ एक हो सकते है, पवित्रता के साथ एकतान हो सकते है। किन्तु तब प्रश्ऩ होता है की यीशु के पास हम कैसे जाएँ? जैसे पेंटीकोस्ट के दिन, हजारों की संख्या में भीड़ के लोगों ने पाप की गरिमा समझ चिल्ला उठा था,“हम क्या करे!” पतरस ने उसके जवाब में पहला शब्द जो कहा था, वह यह था,“मन फिराओ” अर्थात पश्चाताप करो। प्रेरित २:३८। थोड़ी देर बाद, दुसरे प्रसंग में उसने कहा,“मन फिराओ और लौटो की तुम्हारे पाप मीटाए जाएँ।” प्रेरित ३:१९॥SC 17.1

    पश्चाताप का अर्थ है पाप के लिए वास्तविक दू:ख करना और पाप से दूर हटना। पाप को हम तब तक छोड़ नहीं सकते जब तक पाप के पापत्व को हम देख न लें। और जब तक हम पाप से अपने ह्रदय को दूर न कर ले,तब तक हमारे जीवन में कोई वास्तविक परिवर्तन न होगा॥SC 17.2

    अधिकाँश लोग पश्चाताप के वास्तविक अर्थ को समझते ही नहीं। अनेक लोग लोभ तो प्रगट करते है की उन्होंने पाप किया, और साथ साथ ऊपरी टीमटाम में कुछ सुधार भी ले आते है क्योकि वे डरते है फिर फिर कुछ गलती हुई तो अपने ही मस्तक पर क्लेश घहरायेगा। किंतु बायबल के अर्थ से यह पश्चाताप है ही नहीं। ए लोग क्लेश से दू:खित हैं न की पाप से। एसाव को भी ऐसा ही लोभ हुआ था जब उसने यह देखा की उसका जन्मसिद्द अधिकार उससे सदा के लिए छिऩ गया॥SC 17.3

    बलाम ने जब देखा की उसके रास्ते को रोक एक दूत नंगी तलवार लिए खड़ा है, तो उसने अपना अपराध इस लिए स्वीकार कर लिया की जान बच जाए। अन्यथा उसके प्राणों के लाले पड़े थे। किंतु बलाम के इस व्यापार में सच्चे पश्चाताप की कोई बू-वास नहीं थी। उस में पाप का अनुताप नहीं, उद्देश में परिवर्तन लाने का संकल्प नहीं, अन्य-अत्याचार-अपराध पर घृणा नहीं। यहूदा इस्कारियत ने अपने प्रभु को पकडवाने के बाद कहा, “मैं निर्दोष को घात के लिए पकडवा कर पाप किया हैं।” मती २७:४॥SC 17.4

    धिक्कार की भीषण भावना से तथा न्यायानुसार दण्ड-प्राप्ति की आकुलता से प्रेरित हो कर उसकी कपटी आत्मा ने पाप-स्वीकृति की। काम करने के बाद उसके अंदर यह दुध्देषे भय समा गया की इसका फल क्या होगा और वह त्रस्त हो उठा। किंतु उसकी आत्मा में मर्मितिक ग्लानी और ह्रदय विदारक लोभ न था कि उसने ईश्वर के पुनित पुत्र को धोखेबाजी से पकड़वाया था, और इस्रायल के पवित्र बन को अस्वीकार किया था। फीरौन जब ईश्वर के न्याय चक्र मैं पिस रहा था, तब उसने पाप काबुल कर लिए। उसने स्वीकृति इस लिए दी की वह दराड से परित्राण पाए। फिर जैसे ही दराड रुका वह स्वर्ग के विरुध्द उठ खड़ा हुआ। ये सारे उदहारण ये दिखाते हैं की लोग पाप के त्रुब्ध होते थे न की पाप के लिए दुःखित और संतप्त थे।SC 17.5

    लेकिन जब ह्रदय ईश्वर की प्रेरणा से स्पंदित होता है; तब अंतरचेतना जागृत हो उठती है, और तब पापी इश्वर के उस नीयम चक्र की पवित्रता और विस्तार का कुछ अंश देख लेता है जिसपर उसका स्वर्ग और पृथ्वी का समस्त साम्राज्य अवलंबित है। “सच्ची ज्योति जो हर एक मनुष्य को प्रकाशित करती है जगत में आने वाली थी,” आत्मा के गुप्त अंतरप्रदेश में प्रभाव बिखेर देती है और तब अंधियालें में छिपी वस्तुएं प्रत्यक्ष दिख पड़ती है। सारे मस्तिष्क और ह्रदय में विश्वास की द्ढ़ भीतियां खडी हो जाती है। पापी की ह्रदय में यहोवा की पवित्रता का भाव उदित होता है और वोह अपने अपराध और मलिनता के कारण सर्वज्ञ प्रभु के समक्ष आने में कापता है। वह इश्वर के प्रेम, पवित्रता के सौंदर्य, पुनीतता के उल्लास को देखता है। वह स्वछ और पवित्र होने को तथा इश्वर के समक्ष आ जाने को विकल हो उठता है॥SC 19.1

    पतन के उपरांत दाऊद ने जो प्राथना की वह पाप की वास्तविक वेदना का परिचय देती है। उसका पश्चताप ह्रदय के गूढ़ प्रदेश से फूट पड़ा था। वह अपराध छिपाना नहीं चाहता था। न्यायोचित दंड पाने के डर से प्रेरित हो कर उसने प्रार्थना नहीं की। दाऊद ने अपनी अनीति की गुरुत्व को समझा। उसने अपनी आत्मा की क्लूष-कालिमा देखी। अपने पाप को देख वह घृणा से भर उठा। उसने केवेल क्षमा याचना के लिए ही प्रार्थना नहीं की किन्तु ह्रदय शुद्धि के लिए भी प्रार्थना की। वह शुद्धात्मा के उल्लास के लिए व्याकुल कंदन कर उठा। वह इश्वर के समक्ष एकतान और एकाकार होने को विलक पड़ा। उसकी आत्मा से वाणी फूटी वह कुछ इस प्रकार थी:-SC 19.2

    “क्याही धन्य है जिसका अपराध क्षमा किया और जिसका पाप ढाँपा गया हो॥
    क्याही धन्य है वह मनुष्य जिस के अधर्म का यहोवा लेखा न ले
    और उसके आत्मा के कपट न हो॥” भजन सहिता ३ २ : १, २॥
    SC 19.3

    “है परमेश्वर अपनी करुना के अनुसार मुझ पर अनुग्रह कर
    अपनी बड़ी दया के अनुसार मेरे आपराधो को मिटा दे॥
    मुझे भली भाँती धो कर मेरा अधर्म दूर कर
    और मेरा पाप छुडा कर मुझे शुद्ध कर॥ मैं तो अपने अपराधों को जानता हूँ,
    और मेरा पाप निरन्तर मेरी दृष्टी में रहता है॥
    जुफा के द्वारा मेरा पाप दूर कर और मै शुद्ध हो जाऊँगा
    मुझे धो और मैं हिम से अधिक श्वेत बनूंगा॥……
    हे परमेश्वर मेरे लिये शुद्ध मन सिरज
    और मेरे भीतर स्थिर आत्मा नये सिरे से उपजा॥
    मुझे अपने सामने से निकाल न दे
    और अपने पवित्र आत्मा को मुझ से न ले ले॥
    अपने किये हुए उद्धार का हर्ष मुझे फेर दे
    और उदास आत्मा दे कर मुझे संभाल॥
    तब मैं अपराधियों को तेरे मार्ग बताऊंगा,
    और पापी तेरी ओर फिरेंगे॥
    हे परमेश्वर हे मेरे उद्धारकर्ता परमेश्वर मुझे खून से छुड़ा,
    मैं तेरे धर्मं का जय जयकार करूँगा॥”
    भजन संहिता ५१:१;१४॥
    SC 19.4

    इस प्रकार का पश्चाताप हम मनुष्यों के लिये संभव नहीं। ऐसी शक्ति हम में तभी आयेगी जब हम ख्रीष्ट से इसे पायें -- उस ख्रीष्ट से जो अब ऊपर स्वर्ग को चले गए हैं और जो मनुष्यों पर उपहारों और उपकारों के वरदान बरसाते हैं॥SC 20.1

    बस यही एक बात हे जिस पर अधिकाँश भ्रम में पड़ जाते हैं और ख्रीष्ट को जो सहायता देने को तत्पर रहते हैं स्वीकार करने में चुक जाते हैं लोग यह सोचते हैं कि वे ख्रीष्ट के समक्ष तब तक नहीं जा सकते जब तक पश्चाताप नहीं कर लेते और पश्चाताप पाप-मोचन कि पूरी तैयारी कर देता है। वह तो ठीक है कि पाप-मोचन के पहले पश्चाताप होता है,क्योंकि भग्न ह्रदय ही उद्धारकर्ता प्रभु कि आवश्यकता को अनुभव करेगा। लेकिन तब यह प्रश्न उठता है कि क्या पापी को यीशु के समक्ष उपस्थित होने के लिए तब तक ठहरे रहना चाहिए जब तक उसने पूरा पश्चाताप न कर लिया है? अर्थात क्या पश्चाताप पापी और उद्धारकर्ता प्रभु के बीच रूकावट सकता है?SC 20.2

    बाइबल यह नहीं कहता कि पापी को पहले पूरा पश्चाताप कर लेना ही पड़ेगा और तभी वह यीशु के उस निमंत्रण को स्वीकार कर सकता है जिस में उन्हों ने कहा है, “हे सब थके और बोझ से दबे लोगों मेरे पास आओं मैं तुम्हे विश्राम दूंगा।” मतौ ११:२८। असल बात तो यह है कि यीशु मसीह के अन्तर से जो गुणों कि ज्योति फुट निकलती है वही वास्तविक पश्चाताप के लिए प्रेरित कर सकती है। पतरस ने जब इसरायल के लोगों को शिक्षा दी तो उसने सारी बातें खोल कर कह दी कि “उसी को परमेश्वर ने कर्ता और उद्धारक ठहरा कर अपने दहिने हाथ से ऊँचा कर दिया कि वह इस्राइलियों को मन फिराव और पापों को क्षमा दान करे”। अन्तर्चेतना को जाग्रत करने के लिए यीशु के आत्मा के बगैर पश्चाताप हम कर ही नहीं सकते और उसी तरह उनके बगैर हम क्षम्य हो ही नहीं सकते॥SC 20.3

    ख्रीष्ट प्रत्येक अच्छी शक्ति का स्त्रोत है। पापों के विरुद्ध शत्रुता के भाव का बीजारोपण हमारे ह्रदय में उन्ही के द्वारा ही संभव है। सत्य और पवित्रता कि प्रत्येक प्रबल आकांक्षा, अपने पापमय जीवन कि प्रत्येक स्वीकृति-सूचक धिक्कार, इस बात कि साक्षी देती है कि ख्रीष्ट का आत्मा हमारे अन्तर प्रदेश में काम कर रहा है॥SC 21.1

    यीशु ने कहा है, “मैं यदि पृथिवी से ऊँचे पर चढाया जाऊँगा तो सब को अपने पास खीचूँगा।” योहन १२:३२। पापियों के सामने यीशु को उस उद्धारकर्ता के रूप में व्यक्त करना आवश्यक है जो जगत के पाप के कारण प्राणों का विसर्जन कर रहा हो और जब हमारी ऑंखों के सामने ईश्वर का यह मेमना कलभेरी के क्रूस पर खटके दिखाई पड़ता है, तो मुक्ति का रहस्य हमारे मस्तिष्क्य में खुलने लगता है और तब ईश्वर की करुणा हमें पश्चाताप करने को बाध्य करती है। पापियों के लिए मरने में यीशु ने ऐसे प्रेम का आदर्श रखा जो हमारी समझ के परे है। जब पापी इस प्रेम को देखता है तो उसका ह्रदय द्रवित हो जाता है, मस्तिष्क्य में तीव्र प्रभाव पड़ता है और आत्मा में पश्चाताप का घोर शोक छा जाता है॥SC 21.2

    यह सच है कि कभी कभी आदमी अपने पाप-कर्म्मो से लज्जित हो जाता है और तब कुछ बुरी आदतों को छोड़ देता है। यह सब कुछ वह खिष्ट कि ओर आकृष्ट होने कि बात को बगैर जाने ही कर लेता है। लेकिन ज्योंही वह सुधार के लिए चेष्टा करता है और पुण्य कार्य के लिए सच्ची लगन से कोशिश करता है त्योंही खिष्ट की शक्ति खींचती है। एक प्रेरणा-शक्ति अप्रत्यक्ष रूप में उसकी आत्मा के अंदर काम करती रहती है और इसका उसे मान भी नहीं होता।फल स्वरुप उसकी अन्तर्चेताना सजग और तीव्र हो उठती है और बाह्य जीवन उसके अनुरूप पुनीत बन जाता है। फिर जैसे जैसे यीशु उसे अपने क्रूस की ओर देखने को प्रेरित करता है, ताकि वह यह प्रत्यक्ष देख सके किस प्रकार उसीके पापों ने उसके शरीर को क्षत और आहत किया है, वैसे ही वैसे उसकी अन्तर्चेताना सारी व्यवस्था समझ में आ जाती है। अब उसे जीवन की पापपूर्णता और अपनी आत्मा में जड़ जमाए हुए पाप साफ दिखाई पड़ते है। वह यीशु की पवित्रता को कुछ समझने लगता है और कह उठता है, “ऊफ,यह पाप भी कैसा है जो अपने शिकार की मुक्ति के लिए इतना महान बलिदान चाहता है। क्या इतना प्रेम, इतनी कड़ी यात्रनाओं, इतनी लांछनाऒं की इस लिए जरुरत पड़ी कि हम लोग नाश न हो जएं, बल्कि अनंत जीवन का उपभोग करें?”SC 21.3

    पापी इस प्रगाढ़ प्रेम के विरुद्ध भी जा सकता है:वह यीशु द्वारा आकृष्ट होने से भी इन्कार कर सकता है, किंतु यदि वह ऐसा न करे तो निश्चय ही यीशु द्वारा आकृष्ट होगा। मुक्ति के उपायों के द्यान से ही वह पश्चाताप के आँसू बहते हुए क्रूस के निचे जाने को प्रेरित होगा। तभी वह उन सारे पापों पर सच्चा शोक प्रगट करेगा जिन के कारण ईश्वर के प्रिय पुत्र कि मृत्यु हुई॥SC 22.1

    जो पवित्र मस्तिष्क समस्त प्रकृति की सुषमा के पीछे क्रियाशील है, वही मनुष्यों के ह्रदय की धड़कन में बोल रहा है और उनके अन्दर उसकी कामना बलवती कर रहा है जिस का उन में नितांत अभाव है। पार्थिव वस्तु उनकी इस कामना की पूर्ति नहीं कर सकती। ईश्वर का आत्मा भी उन्हें उन वस्तुओं की खोज में सलग्न रहने का आदेश दे रहा है जिन से शांति और विश्राम प्राप्त हो -- अर्थात खीष्ट का अनुग्रह और शुद्धता का आनंद। परोक्ष एवं प्रत्यक्ष प्रेरक शक्तियों के द्वारा हमारे त्राणकर्ता सदा इसी चेष्टा में लगे हैं कि हमारे मन पाप के असंतोषप्रद क्षणिक सुखों से विरत हो कर उनके द्वारा अनंत आनंद में लीन हो जाएँ। उन लोगों के लिए जो संसार के टूटे नाद से जल पीने की व्यर्थ चेष्टा में जुझ रहे हैं, यह स्वर्गीय सन्देश है,“जो प्यासे हो वह आए और जो कोई चाहे वह जीवन का जल सेंत मेंत ले।” प्रकाशित वाकय२२:१७॥ SC 22.2

    यदि अपने ह्रदय से आप पार्थिव वस्तुओं से अधिक सुंदर और सत्य वस्तु की लालसा करते हों,तो यह जान जाइये कि आप कि यह लालसा आप कि आत्मा में ईश्वर कि वाणी है। उन से आप कहिये कि आप में हार्दिक पश्चाताप आवे, और अपने अनंत प्रेम पूर्ण पवित्रता और विशुद्ध भावना के साथ यीशु आप के समक्ष आ जाएँ। यीशु के जीवन में ईश्वर के नियमों का मूल सिद्धांत -- ईश्वर और मनुष्य में प्रेम--पूरी तरह प्राप्त होता है। उदारता, निस्वार्थ प्रेम आदि उनके आत्मा के जीवन-स्त्रोत थे। जब हम उन्हें देखते हैं, जब उनकी प्रभापूर्ण किरणें हम लोगों पर पड़ती हैं, तभी उस दिव्य प्रकाश में हम अपने ह्रदय के पापों को देखते हैं॥SC 22.3

    निकुंदमस की तरह हम लोगों ने भी आत्म-प्रशंसा आपने आप को यह समझ रखा होगा कि हमारा जीवन विशुद्ध है, नैतिक चरित्र है और इस लिए साधारण पापियों कि तरह अपने को ईश्वर के सामने तुच्छानितुच्छ कह कर झुका देना उचित नहीं। किंतु जब खिष्ट की प्रभा हमारी आत्मा को जगमग कर देगी तभी हम देख सकेंगे कि हम कितने अपवित्र हैं, हमारे उद्धेश्य कितने स्वार्थपूर्ण है, और हमारे जीवन के प्रत्येक व्यापार को कलुपित करनेवाले, ईश्वर के विरुद्ध शत्रुता के भाव कितने गहरे हैं। तभी हम जान पायेंगे कि हमारा धर्म गंदे चीथड़े की तरह फटा है, और पाप की उस कलुष कालिमा से यीशु का शुद्ध लोहू ही हमें मुक्त कर सकता है, तथा ह्रदय को विशुद्ध कर उस में अपने अनुरूप भावों का नवजागरण फूंक सकता है॥SC 22.4

    ईश्वर के आलोकमय गौरव की एक किरण, यीशु की पवित्रता की प्रभा की एक रश्मि यदि आत्मा में प्रवेश कर जाय, तो पाप के दाग और धब्बे साफ साफ नजर आ जायें, और मानव-चरित्र के सारे दोष और त्रुटियाँ खुल पड़ें। वासनामयी और दबी हुई बुरी इच्छाएं, ह्रदय में छिपी विद्रोह की भावनायें, ओठों में दबी गंदी बातें, सारी की सारी प्रत्यक्ष हो जायें। पापी ने जो भी काम ईश्वर के नियम को उखाड़ फेकने के लिए बागी हो कर किये थे, वे तब उसकी नजर के सामने आ जाते है। फिर तो जब वह यीशु के पवित्र, निष्कलंक चरित्र पर दृष्टिपात करता है वो अपने ऊपर घृणा के भाव से भर जाता है॥SC 23.1

    एक बार दानियेल भविष्यवक्ता के पास एक दूत आया। उसने जब दूत के चारों ओर के प्रभापुंज को देखा, तो वह अपनी दुर्बलता और अपूर्णता के भाव से कांप उठा। उस मोहक दृश्य के भाव का वर्णन करते हुए वह कहता है :-- “इस से मेरा बल जाता रहा और मैं श्रीहत हो गया और मुझ में कुछ भी बल न रहा।” दनिष्येल १०:८। आत्मा को जब ईश्वरीय प्रकाश स्पर्श करेगा तो वह अपने स्वार्थ को धिक्कार उठेगा, और आत्म-तुष्टि और आत्म-स्पृदा से घृणा कर उठेगा और यीशु की धार्मिकता की प्रेरणा पा ह्रदय की उस पवित्रता की चेष्टा करेगी जो ईश्वरीय विधान के अनुरूप हे और खिष्ट के उज्जवल चरित्र के योग्य है॥SC 23.2

    पावल कहते हैं कि “व्यवस्था की धार्मिकता के विषय कहो,” अर्थात ऊपरी बाह्याचार आदि के विषय कहो तो मै “निर्दोष” था। फिलिप्पी ३:६। किंतु जब उस व्यवस्था की आध्यात्मिक विशेषता पर दृष्टी पड़ती, तो वे अपने को पापी घोषित करते। यदि व्यवस्था के शाब्दिक अर्थ करें और जिस तरह ऊपरी मतलब देख कर साधारण मनुष्य निर्णय घोषित करते हैं, उसी तरह हम भी ऊपरी मतलब से जाँच करें, तो कहेंगे कि पावल ने अपने आप को पाप से बचाया था। लेकिन जब पावल ने विधान के नियमों का गंभीर मनन किया और उसके अन्तर के गूढ़ सिद्धांतों का अवलोकन किया, और अपने ऊपर वैसी नजर से निरिक्षण किया जैसे दृष्टी से ईश्वर उसे देख रहा था, तो वह लज्जा के मरे झुक गया और अपने सारे अपराध स्वीकार कर लिए। वह कहता हे,“मैं तो व्यवस्था बिना पाहिले जीवित था पर जब आज्ञा आई तो पाप जी गया और मै मर गया।” रोमी ७:९। जब उसने विधान के आध्यात्मिक अर्थ को समझ लिया तो पाप अपने पुरे खूंखार रूप में सामने आ खड़ा हुआ और आत्म-तुष्टि गायब हो गई॥SC 23.3

    ईश्वर समस्त पापों को बराबर नहीं समझते हैं। उनकी और मनुष्य कि दृष्टि में पापों कि श्राणियाँ हैं। किंतु मनुष्य कि नजर में कोई अपराध कितना भी लघु और न्यून क्यों न लगे, ईश्वर की दृष्टि में वह छोटा कभी नहीं। मनुष्य का न्याय पचपतापूर्ण और सदोष है किंतु ईश्वर सभी वस्तुओं का उचित मूल्य आँकता है। नशेबाज पर घृणा की जाती है, और उस से कहा जाता है कि अपने पाप के कारण वह स्वर्ग से वंचित रहेगा। किंतु अहंकार, स्वार्थ और लालच के विरुद्ध कोई अधिक नहीं कहता। और ये वे ही पाप हैं जिन्हें ईश्वर विशेषत: नापसन्द करते हैं: क्योंकि ये पाप उनके उदार चरित्र के बिल्कुल प्रतिकूल हैं, प्रेममय और विशुद्ध विश्वव के विरुद्ध हैं। जो किसी निकृष्ट पाप के गढ़े में गिर पड़ेगा वह तो अपने ऊपर कुछ लज्जित होगा, अपनी दीनता और खिष्ट के आलोक की आवश्यकता की अनुभूति करेगा, किंतु अहंकार किसी की जरुरत नहीं समझता। अतएव अहंकार यीशु और उनके अक्षय वरदान के विरुद्ध ह्रदय के कपाटों को पूरी तरह बंद कर देता है॥SC 24.1

    उस दिन कर उगाहनेहारे ने जब प्रार्थना की कि, “हे परमेश्वर मुझ पापी पर दया कर” (लूक १८:१३)। तब उस ने अपने आप को बड़ा भारी दृष्ट समझा और दुसरे लोगों ने भी ऊसे पतित करा दिया। लेकिन उसने यह जन लिया कि उसे क्या आवशयकता है और तब वह अपने पाप के बोझ को लिए हुए शर्म में गडकर ईश्वर के पास दया की भीक मांगने को आ खड़ा हुआ। उस का दिल ईश्वर के प्रकाश के प्रवेश के लिए खुला पड़ा था ताकि ईश्वर उसे पापों से मुक्त करा दे। इनके विपरीत फरिसी के दर्प और आत्म-स्पृहा से भरी प्रार्थना यह सुचित कर रही थी कि ईश्वरीय प्रेरणा के विरुद्ध उस का ह्रदय बद्ध था। वह ईश्वर से दूर पद गया था अतएव उसे अपनी कलुष-कालिमा का कोई ज्ञान नहीं। उसे यह बोध नहीं था कि ईश्वरीय शुद्धिके विरुद्ध वह कितना अशुद्ध है। उसे किसी की आवश्यकता मालूम नहीं और वह कुछ न पा सका॥SC 24.2

    यदि आप अपने पापमय चरित्र देख लें, तो उसके सुधार के लिए न रुकें। वैसे ऊँगलियों पर गिने जा सकते हैं जो ये समझते है कि खिष्ट के समक्ष आने के वे बिल्कूल अयोग्य हैं। क्या आप यह समझते हैं कि अपनी शक्ति से आप सुधार जाइयेगा? “क्या हबसी अपना चमड़ा या चीता अपने धब्बे बदल सकता? यदि कर सकें तो तू भी जो बुराई करना सीख गई है भलाई कर सकेगी।” थिमेयाह १३:२३। हमारी सहायता केवल ईश्वर कर सकता है। हम इन से अधिक तीव्र प्रेरणा, अधिक सुंदर अवसर अथवा अधिक पवित्र ह्रदय के लिए प्रतीक्षा करना व्यर्थ है। अपने किए हम कुछ भी नहीं कर सकते। हमें निश्चित हो कर यीशु के पास अवश्य चलाना चाहिये॥SC 24.3

    किंतु किसी को इस भ्रम में न रहना चाहिये कि ईश्वर अपनी प्रेमार्दता और क्षमाशीलता वश उन्हें भी तार लेगा जो उसके अनुग्रह को अस्वीकार करते हैं। पाप कि निकृष्टता क्रूस के द्वारा प्रगट होती है। जब कोई यह कहे कि परमेश्वर इतना उदार है कि वह किसी भी पापी को त्याग नहीं सकता, तो उसे कालमेरी की रोमांचकारी लीला देखने को कहो। मनुष्य को बचाने का कोई और उपाय न रहने के कारण, बिना बलिदान के मानव-जाति को पाप के विनाश से मुक्त करने का अन्य साधन न रहने के कारण, नाशोन्मुख मनुष्य-मात्र को पुन: ईश्वर और पवित्र आत्मा के मध्य ले आने का और अन्य मार्ग न रहने के कारण, प्राण-समर्पण के बगैर मनुष्य का पुन: आत्मिक जीवन प्राप्त करना असंभव हो जाने के कारण, खिष्ट ने विद्रोही पुत्रों का, गद्दार मनुष्यों का दोष अपने सिर-माथे लिया और पापियों के बदले खुद यातनायें भोगी। ईश्वर-पुत्र का प्रेम, संताप और मृत्यु सभी पाप को कालिमा की साक्षी हैं और यह घोषित करती हैं कि पाप कि दुद्धर्ष भुजाओं से बच निकलना, और उन्नत जीवन कि आशा करना तब तक निरर्थक है जब तक आत्मा अपने आप को खिष्ट के चरणों में समर्पित नहीं करती। खिष्ट में आत्म-समर्पण द्वारा ही यह संभव है, अन्यथा नहीं॥SC 24.4

    पश्चाताप-रहित कठोर लोगों की यह आदत कि वे सच्चे ईसाइयों पर तनाकशीकर आत्म-प्रवंचना में खुश रहते हैं और कहते हैं,“मैं भी उन्हीं जैसा सच्चरित्र हूँ। वे लोग मुझ से भाविक आत्म-त्याग करनेवाले, शांत-प्रकृति और सतर्क नहीं। वे भी भोगविलास और आत्म-श्लाघा पसंद करते हैं, मैं भी उन्हें पसंद करता हूँ।” इस तरह वे दूसरों के पाप और अवगुणों को अपने कर्त्तव्य में लापरवाही लाने का बहाना बना डालते है। किंतु दूसरे के पाप और अवगुण हमारी रक्षा नहीं कर सकते, क्योंकि ईश्वरने हम सबों को एक ही अवगुण भरा मानुषी चरित्र नहीं दिया। हमें आदर्श उदाहरण के रूप में ईश्वर का निष्कलंक पुत्र दिया गया है। जो लोग ईसाइयों की कमजोरियों का बखान करते हैं उन्हें ही सुधर कर अच्छे जीवन और उन्नत विचारों के उदाहरण रखने चाहिये। यदि उन्हों ने ईसाइयों के जीवन का क्या रूप हो उस की बहुत ही ऊच्च कल्पना कर ली हो, तो उसका मतलब यह भी हुआ कि उनका पाप और भी अधिक विशाल हो उठा। वे जानते हैं कि सच्चा मार्ग क्या है, फिर भी उस पर चलते नहीं॥SC 26.1

    कार्य को स्थगित करने, टालमटोल करने से सदा बचे रहिये। पाप से निर्मुक्त होने और यीशु के सहारे ह्रदय की पवित्रता पाने के शुभ कार्य को कभी स्थगित मत कीजिये। यही हजार हजार की संख्या में लोग फिसल पड़ते हैं और अनंत कल के लिए नष्ट हो जाते हैं। मैं यहाँ जीवन की क्षण-भंगुरता या अस्थिरता की विशद व्याख्या नहीं करुँगी, किंतु यह निश्चयपूर्वक कहूँगी कि ईश्वर की मनुहार से भरी वाणी सुनकर आत्म समर्पण करने में विलम्ब करना खतरे से खली नहीं। इस विलम्ब में बड़ा खतरा है, और इस खतरे का ख्याल लोग अच्छी तरह नहीं रखते। और इस विलम्ब का अर्थ यह भी हुआ कि लोग पाप में ही मग्न रहना पसंद करते है। कितना भी नगराय पाप क्यों न हो उस में रत रहने का मूल्य अपार हानि उठाना ही है। जिसे हम नहीं दबा सकते वह हमें डालेगा और अन्त में हमारा विनाश कर डालेगा॥SC 26.2

    आदम और हवा ने यह धारणा बना ली कि मना किए हुए फल के खा जाने जैसी छोटी बात की इतनी भीषण सजा नहीं मिल सकती जितनी ईश्वर ने घोषित की थी। किंतु वही छोटी सी बात ईश्वरीय विधान को तोड़ डालने में समर्थ हुई और उसी के कारण मनुष्य ईश्वर से बहुत दूर जा पड़ा और सारे संसार पर मृत्यु और अपार यंत्रनाएँ बाढ़ की तरह आ चढ़ीं। मनुष्य के आज्ञा-भंग करने के फल-स्वरुप युग युगान्तर से वह संसार कातर चीत्कारे कर रहा है, और सारी सृष्टि कराहती हुई चली चल रही है। उसके विद्रोह के प्रभाव स्वर्ग में भीं पड़े। ईश्वर की आज्ञा तोड़ डालने के महान अपराध के प्रायश्चित रूप में काल्वरी का दृश्य आज भी इंगित कर रहा है कि उसके लिए कितने विशाल बलिदान कि आवश्यकता हुई। अब हमारे लिए यही उचित है कि हम किसी भी पाप को नगराय और छोटा न समझे॥SC 27.1

    नियम भंग करने का प्रत्येक अपराध, खिष्ट के अनुग्रह के प्रति उदासीनता अथवा अस्वीकार का प्रत्येक भाव आप के अन्दर प्रतिक्रियायें लें आता है, आप के ह्रदय को कठोर और निष्ठुर बना देता है, इच्छा-शक्ति को अशक्त बना देता है, मानसिक शक्तियों,बुद्धि,विवेक आदि में हास ले आता है और न केवल आप की आत्म-समर्पण करने की इच्छा को कमजोर कर देता है, किंतु साथ साथ ईश्वर की कोमल-वाणी समक्ष आत्म-विसर्जन करने की योग्यता को भी घटा देता है, और सर्वथा अयोग्य बना देता है॥SC 27.2

    अपनी अन्तर्चेतना के तुमुल संघर्ष को, अपने अन्तद्वंन्द्व को बहुत से लोग इस विचार के द्वारा नियंत्रित और शासित करना चाहते हैं कि वे बुरी आदतें जब भी चाहेंगे छोड़ देंगे। अत: वे नि:संकोच ईश्वर कि कृपा कि खिल्ली उड़ाते हैं वे यह सोचते हैं कि अनुग्रह के आत्मा से मुँह मोड़ कर और शैतान कि ओर अपनी शक्तियों को प्रेरित कर देने पर, यदि कभी भीषण परिस्थिति भावे, तो तुरंत शैतान का पल्ला आड़ देना और ईश्वरोन्मुख हो जाना उनके बाँये हाथ का खेल है। किंतु यह बाँये हाथ का खेल नहीं, टेढ़ी खीर हैं। जीवन भर के अनुभव, शिक्षा और अभ्यास, स्वाभाव को ऐसा बना देते हैं कि अंतिम और आवश्यक परिस्थिति में यीशु को स्वीकार करना असंभव प्रतीत होता है और गिने लोग ही ऐसा कर सकते हैं॥SC 27.3

    चरित्र में एक दुर्बल भाव, एक पाप पूर्ण इच्छा यदि लगातर रह जाये और पोषण पा जाय तो वह इतना व्यापक हो उठेगा कि किसी न किसी समय सुसमाचार कि सारी शक्तियों और सद्भावनाओं को मटियामेट कर देगा। प्रत्येक पापमय कुकर्म आत्मा के ईश्वर-विरोधी भाव को प्रत्यय देता और शक्तिपूर्ण करता है। वह मनुष्य जो विधर्मियो कि तरह ईश्वर के न मानने में कट्टर हो अथवा ईश्वरीय सत्य के प्रति पाषाण की तरह उदासीन हो, केवल अपने बोये हुए कर्मो का फल काट रहा है। पाप के साथ खिलवाड़ करने और उसे नगराय समझने के विरुद्ध जो चेतावनी उस बुद्धिमान पुरुष ने दी है कि पापी “अपने ही पाप के बन्धनों से बंद रहेगा,” (नीतिवचन ५:२२) उस से बढ़ कर भीषण चेतावनी सारे बाइबल में और नहीं॥SC 27.4

    यीशु हमें पाप से मुक्त करने को तत्पर हैं किंतु वे हमारी इच्छा-शक्ति पर दबाव नहीं डाल सकते। और यदि अपराध पर अपराध, पाप करते रहने पर इच्छा-शक्ति पापोन्मुख हो गई है, और हमें मुक्त होने कि “वास्तविक इच्छा” नहीं, तो वे कर ही क्या सकते हैं? यदि हम में उन के अनुग्रह पाने कि “इच्छा-शक्ति” नहीं तो उन के अनुग्रह पाने कि “इच्छा-शक्ति” नहीं तो उनका क्या वश? हमने उनके प्रेम को ठुकरा देने की जिद्द बना ली है और फल-स्वरुप हम विनष्ट हो चुके हैं। “देखो अभी वह प्रसन्नता का समय हे देखो अभी वह उद्धार का दिन है।” “यही आज तुम उस का शब्द सुनो तो अपना मन कठोर न करो।” इब्री ३:७, ८॥SC 28.1

    “मनुष्य तो बाहर का रूप देखता है पर रहती है।” वह उस मानव ह्रदय को देखता है जिस में रहस और रुदन, हर्ष और शोक की भावनाओं का द्वन्द्वमय स्फुरण होता है, जिस में चंचलता और भोगविलास के प्रति आकर्षण होता तथा जो कुत्सित भावों, पापों और धोखे बाजी आदि का केन्द्र स्थल है। ईश्वर उसके उद्धेश्य, प्रयोजन और लक्ष्यादि को जानता है। अपनी कलुषित आत्मा को, जैसी वह है वैसी ही लिए हुए, ईश्वर के पास दौड जाइये। सर्वज्ञ के सामने उसके सारे द्वार, वातायन और कोठरियों को खोल कर स्त्रोत्र कर्ता की तरह कह उठिये, “हे ईश्वर मुझे जांच कर जान ले, मुझे परख कर मेरी चिन्ताओं को जान ले। और देख की मुझ में कोई संताप करनेहारी चाल है कि नहीं और सदा के मार्ग में मेरी अगुवाई कर।” भजन संहिता १३८:२३, २४॥SC 28.2

    बहुत से लोग अपनी बुद्धि के द्वारा प्राप्त धर्म को मानने लगे हैं। वे भक्ति के उपासक हैं पर उनका ह्रदय स्वच्छ नहीं। आप की प्रार्थना इस प्रकार हुआ करे, “हे परमेश्वर मेरे भीतर स्थिर आत्मा नये सिरे से उपजा।” भजन-संहिता ५१:१०। अपनी आत्मा के साथ सर्वदा सैट-संबंध स्थापित कीजिए। आप उतना व्यग्र, उद्योगी तथा स्थिर-निश्चय होइये जितना आप तब तक होते जब आप का जीवन खतरे में पड़ जाता। क्योंकि यह एक ऐसी बात है जो आप की आत्मा और ईश्वर के बीच का संबंध सदा के लिए निर्धारित कर देगी। यदि काल्पनिक आशा की प्रवचना में आप पड़े रहेंगे, कुछ चेष्टा वास्तविक रूप न करेंगे, तो आप का विनाश निश्चित है॥SC 28.3

    ईश्वर के वचन का मनन प्रार्थना के रूप में कीजिए। वह वचन, ईश्वरीय विधान और यीशु के जीवन में साधुता और पवित्रता का सिद्धांत है और “जिस बिना कोई प्रभु को न देखेगा” (इब्री १२:१४) उसी को आप के समक्ष रहेगा। यह पाप के बारे आप को विश्वास दिलायेगा, और मुक्ति का पथ दिखलायेगा। उस पर आप पूरा ध्यान दीजिये--मानो ईश्वर की वाणी ही आप की आत्मा को जगा रही हो॥SC 28.4

    जब आप पाप के गुरुत्व को जन जाँय, जब आप अपने आप को नग्न और वास्तविक रूप में जान लें, तो हतास मत होइये। खिष्ट पापियों की रक्षा के लिए ही आये थे। हमें ईश्वर को अनुरूप बनाना नहीं, किंतु ईश्वर स्वयं यीशु में जगत को अपने अनुरूप बना रहा है। कैसा अद्भुत प्रेम है। वह अपने कोमल प्रेम के द्वारा अपने पथ भ्रष्ट पुत्रों को प्रेम की ओर आकृष्ट कर रहा है। इस जगत में कोई भी पिता अपने पुत्र की दुर्बलताओं और गलतियों को इतनी धीरता के साथ नहीं सहता जितनी सहिष्णुता के साथ ईश्वर अपने उन पुत्रों की त्रुटियों को सहता हैं जिन्हें वह बचाना चाहता है। नियम-मग्न करनेवाले के साथ इतनी ममता के साथ और कोई बहस नहीं कर सकता। किसी भी मनुष्य की वाणी ने पथ-भ्रष्टों की वैसी मित्रते नहीं की जैसी ईश्वर करते हैं। उस की सारी प्रतिज्ञा, चेतावनी और उपदेश अपूर्व प्रेम के उच्छवास ही हैं॥SC 29.1

    जब शैतान आप को यह कहने आये कि आप बड़े भारी पापी हैं तो अपने मुक्तिदाता की ओर निहार लीजिये और उन के गुण गाइये। उनकी ज्योतिर्मयी किरणों को देखिये और वाही आप की सहायता करेगी। अपने आप को स्वीकार कीजिये किंतु शत्रु से वह कहिये,“मसीह यीशु पापियों का उद्धार करने के लिए जगत में आया।” १ तीमुथियुस १:१५। और आप उनके अनुपम प्रेम के द्वारा बचा लिये जायेंगे। यीशु ने शमौन से दो कर्जदारों के बारे कुछ प्रश्न किया। एकने अपने स्वामी से थोड़ी रकम उधार ली थी लेकिन दूसरा मोटी रकम ॠण लिये हुए था। उन के स्वामी ने दोनों को क्षमा कर दिया। तब खिष्ट ने शमौन से पूछा कि कौनसा कर्जदार उन्हें अधिक प्यार करेगा। शमौन ने उत्तर में कहा, “वह जिसका उसने अधिक छोड़ दिया।” लुक ७:४३। हम लोग बहुत बड़े पापी हैं, किंतु यीशु ने इस लिए मृत्यु का आलिंगन किया कि हम लोग माफ कर दिए जाँव। हमारे ईश्वर के समक्ष जाने के लिए उनके बलिदान की महिमा अपरंपार है। जिन की गुरुतम और अधिक से अधिक बुराइयों को क्षमा की गई है, वे उन्हें सब से अधिक प्यार करेंगे और वे उनके सिंहासन के सब से निकट खड़े हो कर उनकी अप्रतिम प्राति और अपूर्व बलिदान की प्रशंसा करेंगे। जब हम ईश्वर के अनंत प्रेम की पूरी जानकारी हासिल कर लेते हैं तभी हम अपने पाप की गरिमा अच्छी तरह समझ सकते हैं। जब हम उस कड़ी की लम्बाई को देखते हैं जो हमारे लिए नीचे गिराई गई थी, जब हम अपने कल्याण हेतु खिष्ट के महान बलिदान की महिमा कुछ कुछ समझने लगते हैं, तो हमारा ह्रदय परिताप, शोक और करुणा से द्रवित हो जाता है॥SC 29.2

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