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    ईश्वर के बारे ज्ञान

    ईश्वर कई उपायों से अपना ज्ञान हम लोगों के अन्दर उध्दोधित करता है और हमें अपने समापम में लाता है। सारी प्रकृति हमारी ज्ञानेंद्रियों से उसके बारे आदि काल से कहती आ रही हैं। उसके हाथ की सृष्टि से ही प्रेम और विभूति प्रगट हो रही है, उसे उदार ह्रदय निश्चय ग्रहण करेगा और विमुग्ध हो जायेगा। प्रकृति की वस्तुओं के द्वारा जो संदेश ईश्वर प्रेषित करता है उसे सुननेवाले निश्चय ही सुनेंगे और समझेंगे। शस्य श्यामला भूमि, हरी वृक्षावलियाँ, कलित कलियाँ और सुषमित सुमन सजल श्यामल मेघ, रिमझिम बरसता पानी, कल कल नितादिनी सरिता, आकाश के प्रभापूर्ण नक्षत्र हमारे ह्रदय में ईश्वर के संदेश भेजते हैं और अपने स्त्रष्टा के परिज्ञान के लिए हमें निमंत्रण कर कहते हैं की आइये, हमें देखिये और ईश्वर को जो हमारे स्त्रष्टा हैं समझ लीजिये॥SC 69.1

    हमारे मुक्तिदाता ने अपने अमूल्य उपदेशों को प्रकृति को वस्तुओं से सजाया था। वृक्ष, विश्राम, तराई के राशि राशि पुष्पदल, पर्वत, झील और सज्जित दीप्त आकाश, तथा दैनिक जीवन के साधारण व्यापार उन के उपदेश के साथ सदा जुटे रहते और सत्य तथा वास्तविक जीवन का सम्मिश्रण उपस्थित करते। इस सम्मिश्रण से लाभ यह होता की उनके सत्य के उपदेश मनुष्य को अपने कार्य-संकुल और श्रम-पूर्ण जीवन में भी याद आ जाते थे॥SC 69.2

    ईश्वर अपने पुत्रों द्वारा अपने कार्यों की प्रशंसा और समीक्षा सुनना चाहता है। वह यह भी चाहता है की जिस सरल स्निग्ध तथा गंभीर रूप से हमारे पार्थिव घर को सुसज्जित किया है उसकी मनोमुग्धकारी सुषमा से हम आनंद-विभोर हो उठें। वह सौंदर्य का अनुरागी है और बाह्य सुषमा से अधिक वह चरित्र के सौष्ठव का प्रेमी है। वह यह चाहता है की कुसुमों के कमनीय सौंदर्य और कोमल सरलता की तरह हम अपने चरित्र में पवित्रता का सौंदर्य और कोमल सरलता ले आयें॥SC 69.3

    यदि हम सुनें, तो ईश्वर की सृष्टि हमें आज्ञा-पालन और विश्वास के अनेक उपदेश सुनाये। उन तारनों से लेकर जो अपनी कक्षा में शुन्य नम्बर के निस्सीम पथ पर युग युग से चलते आ रहे हैं, पृथिवी के परमाणु कणों तक सृष्टि के सभी पदार्थों में ईश्वर की आज्ञा के पालन के उदहारण दिखाई पड़ सकते हैं। ईश्वर सबों पर ध्यान देता है और जितनी भी वस्तुएँ उसने सृष्टि की सर्वों का पालन-पोषण करता है। इस अनंत विश्व के राशि राशि गृह मंडल और नक्षत्र-मंडल का जो संरक्षक है वही उस छोटी सी गौरेये की आवश्यकता को पूर्ण करता है, जो निडर बैठ कर उस छोटी डाली से अपने सरल एवं सरस संगीत सुनाती है। जब मनुष्य अपने दैनिक श्रम में व्यस्त होने जाते हैं और जब वे प्रार्थना में तल्लीन रहते है; जब रात्रि में विश्राम करते है और जब प्रात:काल जाग उठते हैं: जब वैभवशाली अपने राजमहल में दावत करता है अथवा जब दरिद्र किमान अपने बच्चों को सुखी रोटी बांटता है, इन सभी समयों में ईश्वर के द्वारा इन सारे प्राणियों का निरिक्षण होता है। कोई ऐसी आंसू नहीं जो ईश्वर की दृष्टि में नहीं पड़ती। कोई ऐसी मुस्किराहट नहीं जिस पर वह ध्यान नहीं डालता॥SC 69.4

    यदि हम लोग इन बातों पर पूर्ण रूप से विश्वास करें, तो सारी व्यर्थ की दुश्चिंताएँ मिट जाँय। तब हमारे जीवन में इतनी उदासी नहीं रहे, क्योंकि सारे काम तो उसके हाथों सौंप रहे और वह चिंताओं और कार्यो के भर से न तो घबराता है और न उनकी गुरुता से ऊगता है। ऐसा करने पर ही हमारी आत्मा में वह शांति आयेगी जिसका स्वाद अनेकों ने नहीं चखा॥SC 70.1

    जब आप की ज्ञानेन्द्रिया इस लोक की सुषमा पर मुग्ध होती हैं तो कल्पना कीजिये की उस लोक की सुषमाश्री पर आप किस तरह लट्टू हो जायेंगे। वहाँ की श्री सुषमा उज्जवल निष्कलंक और अमृत है। वहाँ के सौंदर्य में श्राप की कालिमा नहीं। आप की कल्पना उस स्वर्गीय गृह को इतनी सुखद होगी की आप इसी मई रत रहेंगे किंतु वास्तविक स्वर्गीय गृह आप की कल्पना से अधिक मधुर, सुंदर और आलोक पूर्ण है। इस लोक की सुषमा में हम ईश्वर की विभूति को एक झलक मात्र देखते है। धर्मशास्त्र में ऐसा लिखा है, “जो आँख ने नहीं देखा, कान ने नहीं सुना और जो बातें मनुष्य के चित्त में नहीं चढ़ी वे ही हैं जो परमेश्वर ने अपने प्रेम रखनेवालों के लिए तैयार की है।” १ कुरिन्थियों २:८॥SC 70.2

    कवी और प्रकृति-विज्ञान के विशारद प्रकृति के बारे बहुत कहेंगे किंतु यदि प्रकृति की मनोमुग्धकारी सुश्मराशी का कोई आनंद लेता है तो वह ईसाई ही है। क्योंकि वह उन पदार्थों में ईश्वर की नीरागता और कौशल पहचान सकता है, और वही पुष्पों, झाड़ियों और वृक्षों में ईश्वर का प्रेम देख सकता है। जो व्यक्ति पर्वत, तराई, नदी और समुद्र को मनुष्य के प्रति परमेश्वर के प्रेम के घातक स्वरुप नहीं मानता है, वह इन वस्तुओं की महत्वता को पूर्णत: अनुभव नहीं कर सकता है।SC 70.3

    ईश्वर हम लोगों में अपने ऐश्वरिक कार्यों के द्वारा, अथवा अपने पवित्र आत्मा के द्वारा हमारे ह्रदय में प्रकाश और प्रभाव के द्वारा बाते करता है। अपनी परिस्थितियों में, च्तुर्दिक होनेवाले परिवर्तन में कितने उपदेश छुपे पड़े है। यदि हमारा ह्रदय ग्रहण कर सके तो इन अमूल्य उपदेश पा ले। स्तोत्रकर्ता ने ईश्वर की इस लीला के बारे कहा है, “यहोवा की करुणा से पृथिवी भरपूर है।” भजन संहिता ३०:४। “जो कोई बुद्धिमान हो तो इन बातों पर ध्यान करेगा, और यहोवा की करुणा के कामों को विचारेगा।” भजन संहिता १०६:४३॥SC 70.4

    ईश्वर अपने वचनों के द्वारा हम लोगों से संभाषण करता है। यहाँ हम उसके चरित्र को स्पष्ट रूप से समझ सकते है। वहाँ हम उसके मनुष्य के प्रति व्यवहार जान सकते हैं। मुक्ति के महान कार्य भी हम यहीं पहचान पाते हैं। यहाँ हमारे पूर्वजो, भविष्य-दुताओं और अन्य पवित्र लोगों की जीवनी और इतिहास है। “वे भी हमारे समान दू:ख सुख भोगी मनुष्य थे।” याकूब ५:१७। वे भी संघर्ष करते हुए, विफल-मनोरथ होते हुए हम लोगों की तरह ही रहे। उन्होंने ईश्वर के अनुग्रह से विजय पाई। उन्हें सफल होते देख हम लोगों में भी उत्साह भर आता है और पवित्रता के संग्राम में हम पुन: भीड़ जाते हैं। जब हम पढ़ते हैं की उनके अनुभव कितने अमूल थे, उन्हें कितनी प्रभा पूर्ण जीवन, ज्योति और जाग्रति मिली, और अनुग्रहित हो उन्होंने कैसे कल्याणपद काम सम्पादित किये, तो हम भी समर्थ हो जाते हैं। जिस आत्मा से वे अनुग्रहित हो गये, उसी आत्मा से हमारे ह्रदय में भी उत्साह और शक्ति की चमक फैल जाती और हम में भी यह लालसा हो आती है की हम उनके अनुरूप हो जाँय और उन्ही की तरह ईश्वर के साथ साथ चलें॥SC 71.1

    यिशुने पुराने नियम में जो कहा था, वह नये नियम पर और भी अधिक कत्थ रूप में लागू होता है। उन्होंने कहा था, “यह वही है जा मेरी - मुक्तिदाता की जिस पर हमारा अनंत जीवन निर्भर करता है - गवाही देता है।” योहन ५:३८। सारी बायबल ख्रीष्ट के बारे गुणगान करता है। सृष्टि के प्रथम उल्लेख से - क्योंकि “जो कुछ उत्पन्न हुआ उस में से कोई भी वस्तु उसके बिना उत्पन्न न हुई” - लेकर अन्तिम वचन तक “देख मैं शीघ्र आने वाला हूँ।” हम केवल उनके कार्यों का वर्णन पढ़ते और उन्ही की वाणी सुनते हैं। यदि आप मुक्तिदाता को पहिचानना चाहते हैं तो पवित्रशास्त्र का मनन कीजिये॥SC 71.2

    अपने ह्रदय के कोने काने में यीशु के शब्द भर दीजिये। आप की भारी तृष्णाओं को शांत करने के लिए वे जीवनमय जल हैं। वे स्वर्गीय भोजन हैं। यीशु ने तो यह घोषणा की है, “जब तक मनुष्य के पुत्र का मांग न खाओ और उसका लाडू न पाओ तुम में जीवन नहीं।” फिर वे इसकी व्याख्या इस प्रकार करते हैं, “जो बातें मैंने तुमसे कही हैं वे आत्मा हैं और जीवन भी हैं।” योहन ६:५३, ६३। हमारे शरीर उन्हीं वस्तुओं से बनते हैं जिन्हें हम खाते पीते हैं। अब जो बात प्रकृति रूप में ठीक है वही आध्यात्मिक विषय में भी लागू है। जिस विषय पर हम एकनिष्ट चिंतन करेंगे, जिसकी साधना में हमारे ह्रदय और मस्तिष्क लगा रहेगा वही हमारे आध्यात्मिक स्वाभाव में शक्ति और सौम्य भरेगा॥SC 71.3

    मुक्ति का विषय ऐसा मधुर विषय है की दुतगन इस पर सदा ध्यान देते हैं। मुक्ति एक ऐसी मधुर वस्तु है की मुक्तिप्राप्त लोगों के लिए वह अनंत काल तक सारे विज्ञान का केंद्र और सारे संगीत का स्त्रोत रहेगा। अतएव उस पर गंभीर चिंतन करना और मनन करना क्या अनुचित है? यीशु की निस्सीम करुणा और प्रेम, हमारे लिए उनका अद्वितीय आत्मोत्सर्ग आदि ऐसी बातें हैं जिन पर गंभीर चिंतन करना हमारा कर्त्तव्य है। हमें सदा अपने प्रिय त्राता और मध्यस्त के चरित्र पर ध्यान देना चाहिये। हमें सर्वदा उनके संदेश और उद्देश का गंभीर विवेचन करना चाहिये जिन्होंने अपने मानव समूह को पाप से बचने के लिए जगत मैं पदार्पण किया था। जब हम इन स्वर्गीय विषयों पर एकनिष्ट चिंतन करेंगे तो हमारा विश्वास प्रगाढ़ होगा, प्रेम गंभीर होगा और हमारी प्रार्थनाएँ ईश्वर को अधिक से अधिक स्वीकार होंगी क्योंकि उन प्रार्थनाओं में अधिक सें अधिक विश्वास और प्रेम भरे रहेंगे। तभी प्रार्थनाएँ चमत्कार पूर्ण और स्पष्ट रहेंगी। यीशु पर तब और भी गहरा भरोसा रहेगा और उनकी शक्ति का नित्य जीवित अनुभव होगा की हो उसके पास आते हैं उनका वह पूरा पूरा उद्धार कर सकता है॥SC 71.4

    अपने मुक्तिदाता का हम जितना ध्यान लगायेंगे, उतनाही अधिक हम अपने में परिवर्तन लाना चाहेंगे और अपने को उनकी पवित्रता का अनुरूप चाहेंगे। जिस मसीह को हम भजते हैं उनके जैसा हो जाने की भूख और प्यास हमारी आत्मा में ज्वालायें उठायेगी। यीशु पर विचार जितनी तेजी से केन्द्रित होंगे उतनी ही तत्परता से हम उनका वर्णन दूसरों के समक्ष करेंगे और संसार में उन्हें प्रचारित करेंगे॥SC 73.1

    बायबल केवल विद्यार्थियों के लिए ही नहीं लिखा गया था। बल्कि वह तो साधारण जनता के लिए बना था। वे बड़ी शिक्षाएँ जो हमारे उद्धार के लिए आवश्यक हैं, दोपहर की धुप की नाई इतनी स्पष्ट कर दी गई है की उसे पढ़ कर कोई भी अपने सत्य के पथ से भटक नहीं सकता। हाँ, यदि वह ईश्वर की प्रगट इच्छा और आदेश के अनुसार न चल कर अपने विचार से चले, तो बात दूसरी है॥SC 73.2

    पवित्रशास्त्र के बारे दूसरा आदमी हमें जैसा समझा दे वैसा ही समझ लेना उचित नहीं हमें तो चाहिये के पवित्रशास्त्र, परमेश्वर के वचन को खुद पढ़े और खुद समझे। यदि दूसरों की समझ से ही हम समझने के आदि हो जायेंगे तो हमारी शक्ति ही पंगु हो उठेगी और योग्यता नष्ट हो चलेगी। ऐसा करने से मस्तिष्क की शक्तियों के विकास के लिए यदि ऐसे गंभीर और रोचक विषय न मिलें और उनका नित्य व्यवहार न हो तो ईश्वर के वचन के गूढ़ अर्थ को समझने की शक्ति न रहेगी। मस्तिष्क तभी विकसित होगा जब उसे बायबल के विषयों के संबंध पता लगाने में, एक पद से दुसरे पद के साथ तुलना और समीक्षा करने में, तथा अध्यात्मिक वस्तुओं का अन्य अध्यात्मिक पदार्थों से मिलान करने में लगाया जाय॥SC 73.3

    बुद्धि के विकास के लिए धर्मशास्त्र के अध्ययन के सिवा और कोई अन्य साधन उतना लाभप्रद नहीं। कोई भी पुस्तक या ग्रंथ इस प्रकार से विचारों को उन्नत और शक्तियों को बल और स्फूर्ति प्रदान नहीं कर सकता जैसा बायबल का सारभौम और सनातन सत्य कर सकता है। ईश्वर के वचनों का अध्ययन और अनुशीलन करने से मनुष्यों का ह्रदय इतना उदार और विशाल, मस्तिष्क इतना सहिष्णु और करुणापूर्ण, चरित्र इतन उच्च और भव्य, उद्देश्य इतने संगलमय और दृढ़ हो जायेगे की जिसका बराबरी का होना आजकल दुर्लभ है॥SC 73.4

    लेकिन धर्मशास्त्र की उडती नजर से पढाई से लाभ प्राप्त करना असंभव है। आप सारा बायबल शुरू से आखिर तक चाट लेंगे लेकिन कहीं सौंदर्य की झलक अथवा गूढ़ रहस्य का उध्दटन न पायेंगे। इस के उलटे आप एक ही वाक्य पढ़ कर उसका मनन और चिंतन करें और गूढ़ अर्थ हृदयंगम कर मुक्ति के मार्ग में उसका क्या उद्देश्य है यह समझ लें, तो निरुद्देश्य और निरर्थक कई परिच्छेद पढ़ जाने से आप को अधिक लाभ होगा। अपना बायबल अपने पास सदा रखिये। जहाँ मौका मिले पढ़ जाईए; उसके पदस्थल याद रख लीजिये । सड़क पर चलते हुए भी आप एक दो पदस्थल पढ़ कर उसका मनन कर सकते है और उसे स्मृति पटल पर अंकित भी कर ले सकते हैं॥SC 74.1

    बुद्धि और विवेक ऐसे नहीं आते। जब तक पूरी लगन से चेष्टा न की जाय और पूरी प्रार्थना की आकुलता से पठन और मनन न होगा, ज्ञान प्राप्त करना असंभव है। धर्मशास्त्र के कुछ भाग तो ऐसे सरल और सहज हैं की वे भ्रांति से कोसों दूर हैं। किंतु कुछ ऐसे भी हैं जिनके अर्थ ऊपर में ही पढ़े नहीं मिलेंगे। उन्हें मनन करना हो होगा। धर्मशास्त्र के एक पद की तुलना दुसरे पद के साथ की जानी चाहिये। धर्मशास्त्र के अंतर में प्रवेश करने के लिए अनुसंधान और खोज करनी होगी और साधना में लीन रहना ही पढ़ेगा। ऐसे पाठ से ही उचित पुरस्कार प्राप्त हो सकता है। जैसे भूगर्भ विधान में निपुण लोगों को खात के अन्दर जमीन में छिपे हुए बहुमूल्य धातुओं के नस मिल जाती है, उसी प्रकार जो ईश्वर के शब्दों के भीतर बैठ कर गहरे पानी के निचे खोजता है वह अनेक ऐसे बहुमूल्य सत्य के रत्न प्राप्त करता है जिन्हें असावधानी से पढनेवाले लोग देख भी नहीं सकते। स्फूर्ति और जीवन ज्योति से भरे सत्य के वचन जब ह्रदय में अंकित हो जायेंगे तो वे जीवन की फूटती हुई निर्झरिणी की तरह रहेंगे॥SC 74.2

    बिना प्रार्थना के बायबल पढना सर्वथा अनुसूचित है। इसके पुष्टों को खोलने के पहले हमें पवित्रात्मा के प्रकाश की याचना कर लेनी चाहिये। याचना करने से परकाश निश्चय प्राप्त होगा। जब नतनयल यीशु के पास आया, तो मुक्तिदाता ने कहा, “देखों यह सचमुच इस्त्राइली है इस में कपट नहीं।” नतनयल ने पुचा, “तू मुझे कहाँ से पहचानता है?” यीशु ने उत्तर दिया, “उससे पहले की फिलिप्पुस ने तुझे बुलाया जब तू अंजीर के पेड़ तले था तब मैं ने तुझे देखा था।” योहन १:४७, ४८। इसी प्रकार यीशु हमें भी अपने प्रार्थना के गुप्तस्थानों में देखेंगे। यदि हम प्रार्थना करेंगे और उन से प्रकाश की याचना करेंगे तो हम किसी भी गुप्तस्थान में क्यों न हो। वे हमें निश्चय देख लेंगे और प्रकाश देंगे ताकि हम सत्य को जान सकें। जो लोग विनम्र हो कर ईश्वरीय नेतृत्व की याचना करते हैं उनके साथ आलोकित स्वर्ग लोक के दूतगण चलते हैं॥SC 74.3

    पवित्र आत्मा मुक्तिदाता को उन्नत एवं भव्य बनता है। ख्रीष्ट को, उसकी धार्मिकता की पवित्रता को, तथा उसके द्वारा हमारा जो महान उध्दार हुआ है उसे प्रकट करना उसी का काम है। यिशुने कहा है। “वह मेरी महिमा करेगा क्योंकि वह मेरी बातों में से लेकर तुम्हें बताएगा।” योहन १६:१४। केवल सत्य का आत्मा ही हमें ईश्वरी सच्चाई को अच्छी तरह सिखला सकता है। ईश्वर मनुष्य जाती पर कितनी श्रद्धा करता है की उसने अपने प्रिय पुत्र को बलिदान करने के लिए भेजा और अपने आत्मा को वह शिक्षा देने और सत्य के मार्ग पर बराबर चलने के लिए भेजता है॥SC 75.1

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