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कुलपिता और भविष्यवक्ता - Contents
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    अध्याय 38—एदोम के चारों ओर की यात्रा

    यह अध्याय गिनती 20:144-29, 21:1-9 पर आधारित है

    कादेश में इज़राइल का पड़ाव एदोम की सीमाओं से कुछ ही दूरी पर था, और मूसा और लोग दोनों ही प्रतिज्ञा के देश को ऐदोम से होकर जाने वाले मार्ग से जाने के इच्छुक थे। तदनुसार, जैसे परमेश्वर ने उन्हें निर्देश दिया था, उन्होंने ऐदोम के राजा के पास सन्देश भेजा-PPHin 426.1

    “तेरा भाई इज़राइल यों कहता है, हम पर जो जो क्लेश पड़े है, वह तू जानता होगा, अर्थात यह कि हमारे पुरखा मिस्र में गए थे, और हम मिस्र में बहुत दिन रहे, और मिस्रियों ने हमारे पुरखाओं के साथ और हमारे साथ भी बुरा बर्ताब किया । परन्तु जब हम ने यहोवा की दुहाई दी तब उसने हमारी सुनी और एक दूत को भेजकर हमे मिस्र से निकाल ले आया है, इसलिये अब हम कादेश नगर में है जो तेरी सीमा पर ही है। अत: हमे अपने देश से होकर जाने थे: हम किसी खेता या दाख की बारी से होकर न चलेंगे, और क॒ुओं का पानी नहीं पिएंगे, सड़क-सड़क होकर चले जाएंगे और जब तक तेरे देश से बाहर न हो जाएं, तब तक न दाहिने न बाएं मुड़ेंगे।”PPHin 426.2

    इस नम्नर निवेदन को एक चुनौतीपूर्ण अस्वीकृति के रूप में प्रत्युत्तर मिला। “तू मेरे देश में होकर मत जा,नहीं तो मैं तलवार लिये हुए तेरा सामना करूंगा।”PPHin 426.3

    इस प्रतिरोध से अचम्भित, इज़राइल के अगुवों ने राजा को दूसरा निवेदन इस आश्वासन के साथ भेजा, “हम राजमार्ग से ही जाएंगे, और यदि और हमारे पशु तेरा पानी पीएं, तो हम उसका दाम देंगे, हम को और कुछ नहीं, केवल पांव-पांव चलकर जाने दे।”PPHin 426.4

    परन्तु राजा ने कहा, “तुम निकल कर नहीं जाआंगे।” कठिन रास्तों पर एदोमीयों के सशस्त्र जत्थे पहले से ही पदस्थापित थे, जिससे कि उस दिशा में शान्तिपूर्वक क्च करना असम्भव था, और इब्रियों को बल का प्रयोग करना निषिद्ध था। उनको एदोम प्रदेश के बाहर-बाहर घूमकर लम्बी यात्रा पर जाना पड़ा। PPHin 426.5

    परीक्षा के समय, यदि लोगों ने परमेश्वर पर विश्वास किया होता, तो यहोवा की सेना का कप्तान उन्हें एदोम में से निकाल कर ले गया होता, और एदोम के निवासियों में उनका डर बैठ जाता, जिससे कि शत्रुता प्रकट करने के बजाय, वे कृपा दृष्टि दिखाते। लेकिन इज़राइलियों ने तत्परता से परमेश्वर का कहा नहीं माना और जब वे कुड़कड़ाहट रहे थे और शिकायत करने में लगे हुए थे, वह सुअवसर उनके हाथों से निकल गया ।आखिरकार जब वे इस राजा के पास अपना निवेदन करने को तैयार हुए,उसे अस्वीकार कर दिया गया। जब से उन्होंने मिस्र छोड़ा था, शैतान उनके मार्ग में प्रजोभन और बाधाएं उत्पन्न करने में प्रयत्नशील था, ताकि वे कनान के उत्तराधिकारी न बन सके। और अपनेअविश्वास के कारण, वे शैतान के लिये परमेश्वर के उद्देश्य का प्रतिरोध करने के लिये लगातार द्वार खोलते आए थे।PPHin 426.6

    परमेश्वर के वचन पर विश्वास करना और उस पर तत्परता से काम करना आवश्यक होता है जब उसके स्वर्गदूत हमारे लिये कार्य करने की प्रतीक्षा में होते हैं। शैतान के दूत प्रत्येक बढ़ाए हुए कदम का विरोध करने को तैयार रहते हैं। और जब परमेश्वर पूर्व-विचार में अपने बच्चों को आगे बढ़ने को कहता है, जब वो उनके लिये महान कार्य करने को तैयार रहता है, शैतान उन्हें विलम्ब और हिचकिचाहट द्वारा परमेश्वर को अप्रसन्‍न करने के लिये उकसाता है, वह उनमें विद्रोह की भावना उत्पन्न करने की, या कड़कड़ाहट और अविश्वास जागृत कर उन्हें उन आशीषों से वंचित रखना चाहता है जो परमेश्वर उन्हें देना चाहता है। परमेश्वर के दासों को प्रत्येक क्षण, परमेश्वर द्वारा रास्ता खोले जाने पर कूच करने के लिये सर्वदा तैयार रहना चाहिये। उनकी ओर से विलम्ब शैतान को उनको पराजित करने हेतु कार्य करने का समय देता है।PPHin 427.1

    एदोमियों के इज़राइलियों द्वारा भयभीत होने की घोषणा के तत्पश्चात्‌ एदोम से होकर जाने वाले मार्ग से सम्बन्धित, परमेश्वर द्वारा मूसा को दिये गए.पूर्व निर्देश के अनुसार, उसके लोगों को इस अनुकल परिस्थिति का उनके विरूद्ध प्रयोग करने को मना किया गया था। क्‍योंकि परमेश्वर का सामर्थ्य इज़राइल के लिये कार्यरत था, और इसलिये कि एदोमियों का डर उन्हें आसान शिकार बना देता, इब्रियोंकों उनपर आक्रमण नहीं करना था। व्यवस्थाविवरण 2:4,5में लिखा है, “तुम बहुत चौकस रहो, उन्हें न छेड़ना, क्योंकि उनके देश में से मैं तुम्हें पांव रखने की जगह तक न दूँगा, इस कारण कि मैंने सेईर पर्वत एसावियों के अधिकार में कर दिया है”। एदोम अब्राहम और इसहाक के वंशज थे, और अपने इन्हीं दासों की खातिर, परमेश्वर की ऐसाव के बच्चों पर कृपा दृष्टि थी। उसने उन्हें सेईर पर्वत का स्वामित्व दिया था, और उन्हें तब तक नहीं छोड़ा जाना था, जब तक उनके पाप उसकी कृपा की सीमा को लॉँघ न जाएं। इब्रियों को कनान के निवासियों को निर्वासित और सरासर नष्ट कर देना था, क्योंकि उनके पापों का घड़ा भर चुका था, लेकिन एदोमी अभी परिवीक्षाधीन ही थे, और इस कारण उनके साथ करूणामय व्यवहार होना था। परमेश्वर दया करने में आनन्दित होता है, और वह दण्डाज्ञा देने से पहले अपनी संवेदना को प्रकट करता है। वह इज़राइलियों को एदोम के लोगों को छोड़ देने की शिक्षा देता है, इससे पहले कि वे कनान के निवासियों का सर्वनाश करते।PPHin 427.2

    एदोम और इजराईल के पूर्वज भाई थे, और इस रीति से उनके बीच भाईयों जैसी दयालुता और कृतज्ञता होना आवश्यक था। इज़राइलियों को, उस समय या भविष्य में किसी भी समय, एदोम के रास्ते निकलकर जाने की अस्वीकृति द्वारा अपमान का प्रतिशोध लेने को मना किया गया था। उन्हें एदोम प्रदेश के किसी भी भाग पर अपना अधिकार होने की अपेक्षा नहीं करनी थी। इज़राईली परमेश्वर की कृपा-दृष्टि के पात्र और उसके चुने हुए लोग थे, इसलिये उसके द्वारा लगाए गए प्रतिबन्धों का उन्हें अवश्य पालन करना था। परमेश्वर ने उन्हें एक अच्छी विरासत का आश्वासन दिया था, लेकिन उन्हें यह भावना नहींरखनी थी कि पृथ्वी पर केवल उन्हीं के पास अधिकार थे और अन्य किसी के पास नहीं। एदोमियों के साथ उनके समस्त पारस्पारिक व्यवहार में उनके प्रति अन्याय करने से सावधान रहने का उन्हें निर्देश था। मूल्य चुकाकर, वे उनसे आवश्यक वस्तुओं को खरीदकर उनके साथ व्यापार कर सकते थे। परमेश्वर के वचन का पालन करने और उस पर विश्वास करने के लिये प्रोत्साहन के रूप में उन्हें स्मरण कराया गया, “तुम्हारा परमेश्वर यहोवा तुम्हारे हाथों के सब कामों के विषय तुम्हें आशीष देता आया है, और तुम को कुछ घटी नहीं हुई ।”-व्यवस्थाविवरण 2:7। वे एदोमियों पर निर्भर नहीं थे, क्योंकि उनके साथ वह परमेश्वर था जो साधनों में सम्पन्न था। स्वयं से कुछ भी सम्बन्धित उन्हें बल या छल से प्राप्त करने का प्रयत्न नहीं करना था, किन्तु अपने पारस्पारिक व्यवहार में ईश्वरीय व्यवस्था के सिद्धान्त का उदाहरण होना था, “अपने पड़ौसी से वैसा ही प्रेम कर जैसा तू स्वयं से करता है।’PPHin 428.1

    यदि उन्होंने इस रीति से एदोम को पार किया होता, जैसा परमेश्वर का प्रयोजन था, उनका जाना, उन्हीं के लिये नहीं, वरन्‌ उस प्रदेश के वासियों के लिये भी आशीष सिद्ध होता, क्योंकि उन्हें परमेश्वर की आराधना और उसके लोगों से परिचित होने का अवसर प्राप्त होता और वे देख पाते कि किस प्रकार याकूब का परमेश्वर उससे प्रेम रखने वालों और उसका भय मानने वालों को समृद्ध करता है। लेकिन इज़राइल के अविश्वास ने इस सब पर रोक लगा दी। उनकी चिल्लाहट के उत्तर में परमेश्वर ने लोगों को पानी दिया था, लेकिन उसने उनके अविश्वास को अपना दण्ड निर्धारित करने की अनुमति दे दी। फिर से उन्हें मरूस्थल का पारगमन करना था और जल के चमत्कारी सोते से अपनी प्यास बुझानी थी, जिसकी, यदि उन्होंने परमेश्वर पर विश्वास किया होता तो, आवश्यकता नहीं पड़ती। PPHin 428.2

    तदानुसार, इज़राइल की सेना दक्षिण की ओर मुड़ गई और अनुपजाऊ बंजर भूमि पर चल पड़ी जो एदोम की घाटियों और पहाड़ो के हरे-भरे स्थानों की झलक के बाद और भी अधिक नीरस प्रतीत हो रही थी। इस अरोचक मरूभूमि की सीमान्तर पर्वत श्रंखला से होर पर्वत उठता है, जिसके शिखर पर हारून की मृत्यु होनी थी और उसे दफनाया जाना था। जब इज़राईली इस पर्वत पर पहुँचे, पवित्र आज्ञा मूसा को संबोधित की गईं- “हारून और उसके पुत्र एलीआजार को होर पहाड़ पर ले चल, और हारून के वस्त्र उतारकर उसके पुत्र एलीआजर को पहना, तब हारून वहीं मरकर अपने लोगों में जा मिलेगा।”PPHin 429.1

    साथ-साथ ये दोनों वृद्ध-पुरूष और वह नौजवान पर्वत की ऊंचाई पर चढ़े। मूसा और हारून के केश साठ शीत ऋतुओं की हिम से श्वेत हो चुके थे। उनका लम्बा व घटनापूर्ण जीवन महानतम सम्मानों और एसी अगाघ परीक्षाओं से प्रख्यात था जैसी कभी ही किसी मनुष्य के हिस्से में आई हों। वे अद्भुत स्वाभाविकयोग्यता के धनी थे और उनकी प्रत्येक क्षमता सनातन परमेश्वर के साथ संगति के द्वारा विकसित, उन्नत और प्रतिष्ठित हुई थी। उनका जीवन परमेश्वर और उनके सह-वासियों की निःस्वार्थ सेवा में व्यतीत हुआ था, उनकी मुखाकृतियाँ महान बुद्धिजीवी क्षमता, उद्देश्य की उत्कृष्टता और दृढ़ता, और घनिष्ठ प्रेम का प्रमाण देती थी।PPHin 429.2

    कई वर्षो तक मूसा और हारून अपने दायित्व और कर्तव्य में साथ-साथ खड़े रहे थे। एक साथ उन्होंने असंख्य खतरों का सामना किया था और परमेश्वर की प्रतीकात्मक आशीषों को एक साथ बांटा था, लेकिन अब उनके अलग होने का समय निकट आ गया था। वे अत्यन्त धीमी गति से चल रहे थे, क्योंकि संगति का प्रत्येक क्षण अनमोल था। चढ़ाई खड़ी व दुर्गन थी, और जब वे प्राय: विश्राम करने के लिये रूकते थे, वे बीते समय और भविष्य के बारे में बातचीत करते थे। उनके सामने, जहाँ तक दृष्टि पहुँचती थी, उनके बीहड़-भ्रमण के दृश्य फैले थे। नीचे मैदान में इज़राइलियों की विशाल सेना पड़ाव डाले हुए थी, जिनके लिये इन चुने हुये पुरूषों ने अपने जीवन का उत्तम भाग व्यतीत किया था, जिनके कल्याण के लिये उन्होंने अत्यन्त गहरी रूचि की अनुभूति की थी और महान बलिदान दिये थे। एदोम के पर्वतों के पार कहीं वह रास्ता था जो प्रतिज्ञा के देश जाता था- वह देश जिसकी आशीषों का आनन्दमूसा और हारून के हिस्से में नहीं था। उनके हृदयों में व्रिदोही भावनाओं का कोई स्थान नहीं था, उनके होठों से कुड़कुड़ाहट की कोई अभिव्यक्ति नहीं होती थी, लेकिन फिर भी जब उन्हें अपने पितरों की विरासम से वंचित होने का कारण स्मरण होता था, तो उनके मुख पर गम्भीर उदासी छा जाती थी।PPHin 429.3

    इज़राइल के लिये हारून का कार्य सम्पन्न हो चुका था। चालीस वर्ष पूर्व, जब वह तिरासी वर्ष का था, परमेश्वर ने उसे मूसा के महान और महत्वपूर्ण कार्य में हाथ बॉटने के लिये बुलाया था। उसने मिस्र से इज़राइलियों को निकाल लेने में मूसा का सहयोग किया। उसने महान अगुवे के हाथों को उठाए रखा, जब इब्री सेना अमालेकियों से लड़ रही थी। उसे सिने पर्वत पर चढ़ने की , परमेश्वर की उपस्थिति में जाने की और शाश्वत महिमा के दर्शन करने की अनुमति प्राप्त थी । याजकता का कार्यभार हारून के परिवार को प्रदान किया गया था और उसे महायाजक के पवित्र अभिषेक से परमेश्वर ने सम्मानित किया था। कोरह और उसके दल के विनाश में, पवित्र दण्डाज्ञा के भयानक प्रदर्शन द्वारा उसने हारून को उसके पवित्र पद पर सुरक्षित रखा। हारून की मध्यस्थता के माध्यम से विपत्ति को स्थगित किया गया। जब उसके दो पुत्रों को परमेश्वर की स्पष्ट आज्ञा की अवमानना के लिये मृत्युदण्ड दिया गया, उसने ना तो विरोध किया और ना हीवह बड़बड़ाया। फिर भी उसके उत्कृष्ट जीवन का अभिलेख कलंकित हो गया था। हारून ने एक जघन्य अपराध किया जब उसने लोगों की चिल्लाहट के सम्मुख समर्पण कर सिने में सोने का बछड़ा बनाया, और फिर जब वह मूसा के विरूद्ध बड़बड़ाने और ईर्ष्या करने में मरियम के साथ एक हो गया। और कादेश में चट्टान से पानी को प्रवाहित करने के लिये उससे बात करने की आज्ञा का उल्लंघन करके मूसा ओर हारून ने परमेश्वर को खेदित किया।PPHin 430.1

    परमेश्वर चाहता था कि उसके लोगों के यह दो अगुवे मसीह के प्रतिनिधि हो। हारून अपने सीने पर इज़राइल के बारह घरानों के नामों को धारण करता था। वे लोगों तक परमेश्वर की इच्छा को पहुँचाता था। पूरे इज़राइल के मध्यस्थ के रूप में, “बिना लहू के नहीं” प्रायश्चित के दिन वह सबसे पवित्र स्थान में प्रवेश करता था। उस कार्य को सम्पन्न करके वह प्रजा को आशीष देने आगे आता था,जैसे लोगों की ओर से प्रायश्चित के अपने कार्य की समाप्ति पर, यीशु भी आगे आकर अपने प्रतीक्षारत॒ लोगों को आशिषित करेगा। हमारे महान महायाजक के प्रतिनिधि के रूप में उस पविवत्र पद के उत्कृष्ट स्वभाव ने कादेश में हुए हारून के पाप को इतना गम्भीर बना दिया।PPHin 430.2

    बड़े दुख के साथ, मूसा ने हारून के शरीर पर से उस पवित्र पहनावे को उतारा, और उसे एलीआज़र पर रखा, औरइस रीति से एलीआज़ार, पवित्र नियुक्ति द्वारा हारून का उत्तराधिकारी बना। कादेश में उसके पाप के कारण, हारून को कनान में परमेश्वर के महायाजक के तौर पर कार्य करने के विशेषाधिकार से वंचित रखा गया-उस सुखद प्रदेश में प्रथम बलिदान की भेंट चढ़ाकर, इज़राइल की मीरास को अर्पण करने का विशेषाधिकार । मूसा को कनान की सीमाओं तक लोगों की अगुवाई का दायित्व सम्भाले रहना था। उसने प्रतिज्ञा के देश के दिखाई देने की सीमा तक आना था, लेकिन कनान में प्रवेश करने की उसे अनुमति नहीं थी। यदि परमेश्वर के इन दासों ने, कादेश में चट्टान के सम्मुख खड़े होने के समय, उन पर भेजी हुईं परीक्षा को बिना कड़कुड़ाए सहन कर लिया होता, तो कितना भिन्‍न होता, इनका भविष्य! एक गलत कार्य को अकत नहीं किया जा सकता। ऐसा भी हो सकता है कि प्रलोभन या विचारहीनता के एक क्षण में जो खो गया हो, उसकी क्षतिपूर्ति जीवन भर का प्रयत्न भी नहीं कर सकेगा।PPHin 431.1

    छावनी से दोनों महान अगुवों की अनुपस्थिति, एलीआज़ार, जिसके बारे में सबको भली-मभांति ज्ञात था कि पवित्र पद के लिये वह हारून का उत्तराधिकारी है, उसके, उनके साथ जाने के कारण सन्देह की भावना ने जन्म लिया और वे उनकी वापसी की उत्सुकता से प्रतीक्षा करने लगे ।जब लोगों ने अपने चारों ओर अपने विशाल समुदाय को देखा, तो उन्होंने देखा कि वे सभी प्रौढ़, जिन्होंने मिस्र छोड़ा था, भीड़ में नष्ट हो गए थे। हारून और मूसा को दी गई दण्डाज्ञा का स्मरण कर उन्हें अनिष्ट का पूर्वाभास होने लगा। किसी-किसी को होर पर्वत के शिखर की रहस्यमयी यात्रा के लक्ष्य के बारे में जानकरी थी और स्व-दोषारोपण और कटु-स्मृतियों के द्वारा अपने अगुवों के प्रति उनकी चिन्ता और भी बढ़ गई।PPHin 431.2

    आखिरकार मूसा और एलीआज़ार की आकतियाँ पर्वत से धीरे-धीरे नीचे आती दिखाई पड़ती, लेकिन हारून उनके साथ नहीं था। एलीआज़ार ने याजकीय वस्त्र धारण किए हुए थे, जिसका तात्पर्य था कि उसने पवित्र पद पर उसने अपने पिता की जगह प्राप्त की थी। जैसे-जैसे लोग भारी मन से अपने अगुवे के आस-पास एकत्रित हुए, मूसा ने उन्हें बताया कि होर पर्वत पर हारून ने उस की बाहों में दम तोड़ा और यह कि उन्होंनेउसे वहीं दफना दिया था। प्रजा शोक और विलाप में डूब गई, क्योंकि भले ही उन्होंने कई बार उसे दुख पहुँचाया था, लेकिन वे उससे बहुत प्रेम करते थे। “तब इज़राइल के सब घरानों के लोग तीस दिन तक रोते रहे।’PPHin 432.1

    इज़राइल के महायजक के दफनाए जाने के संदर्भ में पवित्र-शास्त्र केवल एक अभिलेख देता है, “वहां हारून मर गया, और उसको वहीं मिट्टी दी गई ।’ परमेश्वर केस्पष्ट आदेशानुसार संचालित यह शव-संस्कार वर्तमान समय के रीति-रिवाजों से कितना भिन्‍न था। वर्तमान समय में उच्च पद के व्यक्ति का शव-संस्कार दिखावटी और अनावश्यक प्रदर्शन का अवसर बना दिया जाता है। हारून की गणना संसार के प्रख्यात लोगों में होती है, लेकिन उसकी मृत्यु के साक्षी और उसे मिट्टी देने वाले केवल उसके दो घनिष्ठ मित्र थे। और होर पर्वत पर वह एकाकी कब्र हमेशा के लिये इज़राइल से छिप गईं। मृतकों पर प्राय: किये गए प्रदर्शन और मृत शरीर को मिट्टी को लौटा देने में किये गए अनावश्यक खर्च से परमेश्वर का सम्मान नहीं होता। PPHin 432.2

    समस्तप्रजा को हारून के जाने का दु:ख था, लेकिन मूसा को उसकी कमी की उनसे कहीं ज्यादा अनुभूति हुई। हारून की मृत्यु ने मूसा को यह स्मरण करने को बाध्य कर दिया कि उसका स्वयं का अन्त भी निकट था, लेकिन इस पृथ्वी पर उसके रहने का समय भले ही थोड़ा था, उसे अपने हमेशा साथ रहने वाले साथी की बहुत कमी महसूस हुई, हारून ही वह एक था जिसके साथ मूसा ने अपना सुख और दुख, अपनी आशा और भय इतने लम्बे समय के लिये बाँटे थे। अब मूसा को अपना कार्य अकेले ही सम्भालना था, लेकिन वह जानता था कि परमेश्वर उसका मित्र था और उस पर वह अधिक निर्भर करता था।PPHin 432.3

    होर पर्वत को छोड़ने के तुरन्त बाद, इज़राइलियों ने एक कनानी राजा, अराद के साथ मुठभेड़ में पराजय का सामना किया। लेकिन जब उन्‍होंने परमेश्वर से आग्रहपूर्वक सहायतामाँगी, तो उन्हें ईश्वरीय सहायता प्रदान की गई और उसके शत्रुओं को खदेड़ दिया गया। धन्यवादी होने की प्ररेणा देने और लोगों को परमेश्वर पर अपनी निर्भरता का एहसास कराने के बजाय, इस विजय ने उन्हें ढींगगार और आत्मा-विश्वासी बना दिया। वे फिर से कड़कड़ाने की आदत में पड़ गए। अब वे असन्तुष्ट थे क्योंकि इज़राइल की सेनाओं को चालीस वर्ष पूर्व भेदियों की सूचना पर विद्रोह के पश्चात्‌ कनान पर तुरन्त चढ़ाई करने की अनुमति नहीं दी गई थी। बीहड़ में अपने लम्बे पड़ाव को अनावश्यक विलम्ब बताया, और यह तक॑ रखा कि उन्होंने अपने शत्रुओं पर उतनी ही आसानी से विजय पा ली होती, जैसे कि अभी प्राप्त की थी। दक्षिण की ओर यात्रा में उनका मार्ग एक छाया या वनस्पति रहित घाटी से होकर निकलता था। रास्ता लम्बा और कठिन प्रतीत होता था और वे भूख और थकान से पीड़ित थे। फिर से वे धैर्य और विश्वास की परीक्षा में खरे नहीं उतरे। निरन्तर अपने अनुभवों के अन्धकारमय पक्ष के बारे में सोचने के कारण, उन्होंने स्वयं को परमेश्वर से बहुत दूर कर लिया। वे उस तथ्य को भूल गए कि यदि, कादेश में उन्होंने पानी के प्रवाह के रूकने पर बड़बड़ाया नहीं होता, तो उन्हें एदोम के चारों ओर घूमकर यात्रा नहीं करनी पड़ती। परमेश्वर के पास उनके लिये बेहतर चीजों का प्रयोजन था। उनके हृदय परमेश्वर के प्रति कृतज्ञता से पूर्ण होने चाहिये थे कि उसने उनके पापों को कम दण्डित किया था। लेकिन इसके बजाय वे स्वयं को सन्तुष्ट करतेरहे कि यदि परमेश्वर और मूसा ने हस्तक्षेप नहीं किया होता तो उन्होंने अब तक प्रतिज्ञा के देश पर अधिकार पा लिया होता। स्वयं पर संकट लाकर, अपने जीवन को परमेश्वर की योजना से अधिक कठिन बनाकर, उन्होंने अपने दुर्भाग्य का आरोप परमेश्वर पर लगा दिया। इस प्रकार अपने प्रति उसके व्यवहार के सम्बन्ध में कटु विचार संजोते रहे, और अन्ततः वे प्रत्येक चीज से असन्तुष्ट हो गए। मिस्र स्वतन्त्रता से, और उस देश से असन्तुष्ट हो गए। मिस्र स्वतन्त्रता से, और उस देश से जहाँ परमेश्वर उन्हें लेकर जा रहा था, अधिक वांछनीय और उज्जवल दिख रहा था।PPHin 432.4

    असन्तोष की भावना में लिप्त होने से, इज़राइलियों अपनी आशीषों में भी त्रुटियाँ निकालने पर उतारू हो गए। “वे परमेश्वर और मूसा के विरूद्ध बाते करने लगे, ‘तुम लोग हम को मिस्र से जंगल से मरने के लिये क्‍यों ले आए हो? यहाँ न तो रोटी है, और न पानी, और हमारे प्राण इस निकम्मी रोटी से दुखित है। PPHin 433.1

    मूसा ने निष्ठापूर्वक लोगों के सम्मुख उनके महापाप को रखा। केवल परमेश्वर के सामर्थ्य ने उन्हें “उस बड़े और भयानक बीहड़”, में भी सुरक्षित रखा”जहाँ तेज विषवाले सर्प और बिच्छू और सूखा था और जहाँ जल न था” ।-व्यवस्थाविवरण 8:45 । उनकी यात्रा के प्रत्येक दिन उन्हें ईश्वरीय कृपा के चमत्कार द्वारा जीवित रखा गया। परमेश्वर के मार्गदर्शन में पूरे रास्ते उन्हें जल मिलता रहा था जिससे प्यासे तृप्त होते थे, भूख को शान्त करने के लिये स्वर्ग से रोटी मिलती थी, रात को अग्नि के स्तम्भ द्वारा और दिन को छाया देने वाले बादल के नीचे सुख और सुख शान्ति मिलती थी। जब वे पथरीली ऊंचाईयों पर चढ़ते या बीहड़ के ऊबड़-खाबड़ रास्तेपर पंक्तिबद्ध होकर चलते थे, स्वर्गदूत उनकी सेवा टहल करते थे। इतनी कठिनाईयाँझेलने के बावजूद भी उनके सारे जत्थों में एक भी दुर्बल व्यक्ति नहीं था। लम्बी यात्रा में ना तो उनके पैरों में सूजन आईं और ना ही उनके कपड़े पुराने हुए थे। परमेश्वर ने उनके सम्मुख ज॑गल और मरूस्थल के हिंसक पशुओं और विषैले रेंगनेवाले जानवरों को वशीभूत कर दिया था। यदि उसके प्रेम के इन सब प्रतीकों के बाद भी लोग शिकायतें करते रहते, तो यहोवा अपनी सुरक्षा से उन्हें तब तक वंचित रखता जब तक वे उसकी करूणामय देखभाल का मान नहीं रखते और दीनता और प्रायश्चित में उसके पास लौटकर नहीं आते।PPHin 434.1

    ईश्वरीय समार्थ्य की सुरक्षा में वे उन असंख्य खतरों की नहीं जान पाए जिनसे वे हमेशा घिरे हुए रहते थे। अपने अविश्वास और कतज्ञहीनता में वे मृत्यु की आशा कर रहे थे और अब यहोवा ने उन पर मृत्यु को आने की अनुमति दे दी। बीहड़ में बहुतायत से विषैले सर्प थे जिन्हें अग्निमय सर्प कहा जाता था, क्योंकि इनके डंक का प्रभाव अत्यन्त भयानक था जिससे सूजन और जलन हो जाती थी और और डंक मारे व्यक्ति की शीघ्र ही मृत्यु हो जाती थी, इज़राइलियों पर से परमेश्वर की सुरक्षा का हाथ हटते ही, बड़ी संख्या में लोगों पर इन विषैले सर्पों ने आक्रमण किया। PPHin 434.2

    पूरी छावनी में भय और गड़बड़ी फैल गईं। लगभग प्रत्येक तम्बू में कोई न कोई मर रहा था मर चुका था। कोई भी सुरक्षित नहीं था। प्राय: कर्णभेदी चीखें रात के सन्‍नाटे को तोड़ देती और नये पीड़ितों की सूचना देती। सभी लोगपीड़ितों की सेवा में या सर्प से बचे हुए लोगों की अत्यधिक रखवाली के प्रयत्न में व्यस्त थे। उनकी इस समय की पीड़ा की तुलना में, उनकी बीती कठिनाईयों और परीक्षाओं के बारे में विचार करना व्यर्थ था।PPHin 434.3

    अब लोगों ने स्वयं को परमेश्वर के सम्मुख दीन किया। वे अपनों पापों का अंगीकार करऔर निवेदन लेकर मूसा के पास आए। “हमने पाप किया है” वे बोले, “क्योंकि हम ने यहोवा और तेरे विरूद्ध बातें की है।” कुछ ही समय पहले उन्होंने मूसा पर उनका सबसे बड़ा शत्रु होने का दोषी और उनके सभी कष्टों और कठिनाईयों का कारण ठहराया था। लेकिन जब शब्द उनके होठों पर ही थे, वे जानते थे कि आरोप झूठा हैं, और जैसे ही वास्तव में विपत्ति आई तो वे उसके पास दौड़े चले आए क्‍योंकि वे जानते थे केवल वही परमेश्वर के साथ उनके लिये मध्यस्थता कर सकता था। उन्होंने विनती की, “यहोवा से विनती कर कि वह साँपो को हम से दूर करें।PPHin 435.1

    मूसा को पवित्र आदेश दिया गया कि वह जीवित सर्पों से मिलता-जुलता एक पीतल का सॉप बनाए, और उसे लोगों के सम्मुख उठाए। साँप द्वारा सभी कांटे हुओं को इस पीतल के सर्प को देखना था और ऐसा करने से उन्हें आराम मिलना था। मूसा ने ऐसा ही किया, औरसम्पूर्ण छावनी में यह शुभ-समाचार पहुँचाया गया कि जिन्हें भी सांप ने काटा था, वे पीतल के साँप को देखकर जीवित रह सकते थे। कई मर चुके थे, और जब मूसा ने साँप की प्रतिमा को खम्भे पर लटकाया, कुछ लोग को विश्वास नहीं था कि केवल धातु की प्रतिमा को देख लेने से वे चंगे हो जाएँगे, ये लोग अपने अविश्वास के कारण मारे गए। लेकिन बहुत से लोग थे जिन्हें परमेश्वर द्वारा किये गए प्रयोजन में विश्वास था। पिता, भाई, माएँ और बहने पीड़ितों और मरते हुए मित्रों की निस्तेज आंखों को सांप की प्रतिभा पर कन्द्रित करने में चिंतावश व्यस्त थे। यदि ये, हालांकि निर्बल और मरने वाले थे, केवल एक बार उसे देख पाते तो वे पूर्णतया पूर्वावस्था में आ जाते। PPHin 435.2

    लोग भली-भाँति जानते थे कि पीतल के सॉँप में ऐसी कोई शक्ति नहीं थी जो उस पर दृष्टि डालने वाले में ऐसा परिवर्तन ला सके। आरोग्यकर गुण केवल परमेश्वर की ओर से था। इस साधारण उपाय से लोगों को यह आभास कराया गया कि यह कष्ट उनपर उनके पापों द्वारा लाया गया। उन्हें यह भी आश्वासन दिया गया कि यदिवे परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन करते रहे तो डरने का कोई कारण नहीं, क्योंकि वह उन्हें सुरक्षित रखेगा।PPHin 435.3

    पीतल के सांप को ऊँचा उठाकार इज़राइल को एक महत्वपूर्ण सबक सिखाना था। वे अपने घावों के विष के प्राणघातक प्रभाव से स्वयं को बचाने में असमर्थ थे। केवल परमेश्वर ही उन्हें आरोग्य करने में सक्षम था। फिर भी उन्हें परमेश्वर द्वारा दिए गऐ प्रावधान में अपना विश्वास प्रकट करना था। जीवित रहने के लिये उन्हें दृष्टि डालनी थी। वह उनका विश्वास था जो परमेश्वर को स्वीकार्यथा, और सॉप पर दृष्टि करने से उनका विश्वास प्रकट होता था। उन्हें ज्ञात था कि सॉप में स्वयं कोई विशेष गुण नहीं था, लेकिन वह मसीह का प्रतीक था, और उसके सदगुणों में विश्वास की आवश्यकता को उनके मनों में प्रस्तुत किया गया। इससे पहले, बहुत से लोग परमेश्वर के लिये भेंट लेकर आए थे, और उन्हें लगता था कि ऐसा करने से उन्होंने अपने पापों के लिये पर्याप्त प्रायश्चित कर लिया था। वे आने वाले उद्धारकर्ता पर निर्भर नहीं करते थे, जिसकी यह भेंटे केवल रूप-प्ररूप थी। परमेश्वर अब उन्हें यह सिखाना चाहता था कि जैसे पीतल के सांप में कोई गुण या शक्ति नहीं थी, वैसे ही उनके बलिदानों में स्वयं की कोई गुणवत्ता नहीं थी और इस प्रकार वह उनका ध्यान उस महान पापबलि, मसीह की ओर आकर्षित करना चाहता था। PPHin 435.4

    “और जिस रीति से मूसा ने जँगल में सॉप के ऊंचे पर चढ़ाया” इस रीति से मनुष्य का पुत्र भी, “ऊंचेपर चढ़ाया जाए, ताकि जो कोई उस पर विश्वास करे वह अनन्त जीवन पाए ।”यहुन्ना 3:14,15 ।जितने भी लोग इस पृथ्वी पर रहे हैं, उन्होंने उस, “पुराने साँप, जो इबलीस और शैतान कहलाता है” (प्रकाततवाक्य 12:9) के विषैले डंक को महसूस किया है। पाप के प्राण घातक प्रभाव केवल परमेश्वर द्वारा रखे गए प्रावधान के द्वारा ही मिटाया जा सकता है। इज़राइलियों ने उठाए हुए साँप पर दृष्टि डालकर स्वयं को बचा लिया। उस दृष्टि का तात्पर्य विश्वास था। वे जीवित रहे क्‍योंकि उन्‍होंने परमेश्वरके वचन में विश्वास रखा और उनके पूर्वास्था में आने के लिये दिये गए साधन में विश्वास किया। इसी प्रकार पापी मसीह को देखकर, जीवित रह सकता है। प्रायश्चित के बलिदान में विश्वास द्वारा उसे क्षमा प्राप्त होती है। निर्जीव और निष्किय प्रतीक के विपरीत, मसीह के पास पश्चतापी पापी को चंगा करने के लिये स्वयं की शक्ति और विशेषता होती है।PPHin 436.1

    पापी स्वयं को नहीं बचा सकता, लेकिन उद्धार पाने के लिये वह कुछ कर सकता है। यहुन्ना 6:37में लिखा है, “जो कोई मेरे पास आएगा उसे मैं कभी नहीं निकालूँगा।” लेकिन हमें उसके पास अवश्य आना है, और जब हम अपने पापों का प्रायश्चित करते हैं, हमें विश्वास करना चाहिये कि वह हमें स्वीकार करता है और हमें क्षमा करता है। विश्वास परमेश्वर का वरदान है, लेकिन उसका अभ्यास करने की शक्ति हमारी है। विश्वासवह हाथ है जिससे मनुष्य, अनुग्रह और कृपा के पवित्र प्रस्ताव को ग्रहण करता है।PPHin 436.2

    केवल मसीह की धार्मिकता हमें अनुग्रह की वाचा की आशीष का पात्र बना सकती है। कई लोगों ने लम्बे समय से इन आशीषों की अभिलाषा की है और इन्हें प्राप्त करने की चेष्ठा की है, लेकिन उन्हें यह आशीष प्राप्त नहीं हुई, क्योंकि उन्होंने इस विचार को संजोए रखा कि वे स्वयं को इनके योग्य बनाने के लिये कुछ कर सकते हैं। वे अपने अहम से हटकर नहीं देख पाये है, इस विश्वास के साथ भी कि यीशु एक अपने आप में सर्व-पर्याप्त उद्धारकर्ता है। हमें यह नहीं सोचना चाहिये किहमारे स्वयं की गुणवत्ता हमें बचा लेगी, केवल मसीह की हमारे उद्धार की आशा है। “स्वर्ग के नीचे मनुष्यों में और कोई दूसरा नाम नहीं दिया गया जिसके द्वारा हम उद्धार पा सके ।” - प्रेरितों का काम 4:12।PPHin 437.1

    जब हम परमेश्वर में पूर्णतया विश्वास रखते है, जब हम पाप क्षमा करने वाले उद्धारकर्ता के रूप में यीशु की योग्यता पर निर्भर करते हैं, तो हमें वह सहायता प्रदान की जाती है, जिसकी हमें अभिलाषा होती है। किसी को भी स्वयं के बारे में ऐसा नहीं सोचना चाहिये ,मानों उनमें स्वयं को बचाने की योग्यता है। यीशु ने हमारे लिये इसलिये प्राण दिया, क्योंकि हम स्वयं को बचाने में असहाय थे। उसी में है हमारी आशा, हमारी दोषमुक्ति, हमारी धार्मिकता। अपनी पापमयता को देखकर, हमें यह निराशा या भय नहीं होना चाहिये कि हमारे पास उद्धारकर्ता नहीं या यह कि उसका हमारे प्रति दया का कोई विचार नहीं। इसी समय वह हमें हमारी विवशता में उसके पास आने का निमन्त्रण देता है ताकि वह हमें बचा सकें। PPHin 437.2

    बहुत से इज़राइली स्वर्ग द्वारा निर्धारित उपाय में कोई सहायता नहीं देखी । उनके चारों तरफ मृतक और मरने वाले थे, और उन्हें ज्ञात था कि बिना ईश्वरीय सहायता के उनका अपना अन्त भी निश्चित था, लेकिन वे अपने घावों, अपनी पीड़ाओं, उनकी निश्चित मृत्यु का विलाप करते रहे, जब तक कि उनकी शक्ति जाती न रही, और उनकी आँखें पथरा न गई, जबकि उन्हें तत्काल चंगाई मिल सकती थी। यदि हम अपनी आवश्यकताओं के प्रति सजग होती है, तो हमे हमारी सारी शक्ति उन पर शोक मनानेके लिये समर्पित नहीं कर देनी चाहिये । मसीह के अभाव में हमार असहाय अवस्था को जानकर, हमे निराशा के आगे समर्पण करने के बजाय उस उद्धारकर्ता पर निर्भर करना चाहिये जो हमारे लिये क्रूस पर चढ़ाया गया और जो जी उठा। देखो और जीवित रहो। यीशु ने प्रतिज्ञा की थी, वह उन सब कोई बचाएगा जो उसके पास आएँगे। लाखों लोग, जिन्हें चंगाई की आवश्यकता है उसकी प्रस्तावित करूणा का तिरस्कार करेंगे, लेकिन उसकी सामर्थ्य में विश्वास रखने वाला एक भी मनुष्य नष्ट नहीं होगा।PPHin 437.3

    कई लोग मसीह को स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं है जब तक उद्धार की योजना का सम्पूर्ण रहस्य उनके लिये स्पष्ट न किया जाए। विश्वास की दृष्टि को वे अस्वीकार कर देते है, जबकि वे साक्षी है इस तथ्य के कि हजारों लोगों ने मसीह के कूस को देखा और उसे देखने की गुणवत्ता को महसूस किया। कई लोग, कभी न मिलने वाले, प्रमाणों और तकका की खोज में तक-शास्त्र की भूल-भूलैया में घूमते रहते हैं, और वे उस प्रमाण को अस्वीकार कर देते है जो परमेश्वर ने प्रसन्‍न होकर दिया है। वे धार्मिकता के सूरज के प्रकाश में चलना स्वीकार नहीं करते, जब तक उन्हें उसके चमकने का कारण न समझाया जाए। जो भी इस रास्ते पर चलने पर अड़े रहेंगे, वे सत्य के ज्ञान को प्राप्त करने में असमर्थ होंगे। परमेश्वर कभी भी सन्देह का प्रत्येक अवसर नहीं हटाएया। वह विश्वास के आधार के लिये पर्याप्त प्रमाण देता है, और यदि इसे स्वीकार नहीं किया जाता, तो विवेक अन्धकार में रह जाता है। यदि, जिन्हें सॉँप ने काटा था, पीतल के सॉप को देखने की स्वीकृति देने से पूर्व, प्रश्न या सन्देह करने के लिये रूके होते तो वे नष्ट हो जाते। हमारा कर्तव्य है कि, सबसे पहले, हम दृष्टि डाले, और वह विश्वास की दृष्टि हमें जीवन देगी।PPHin 438.1

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