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कुलपिता और भविष्यवक्ता - Contents
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    अध्याय 5—केन और हाबिल का परीक्षण

    यह अध्याय उत्पत्ति 4:1-5 पर आधारित है

    कैन और हाबिल, आदम के पुत्र, चरित्र में अत्यन्त भिन्‍न थे। हाबिल में परमेश्वर के प्रति निष्ठा की भावना थी, उसने सृष्टिकर्ता के पतित मानव जाति के प्रति व्यवहार में न्याय और दयालुता को देखा और मुक्ति की आशा को कृतज्ञता से स्वीकार किया। लेकिन कैन ने उपद्रव की भावनाओं को पनपने दिया और आदम के पाप के फलस्वरूप धरती और मानव जाति पर श्राप की घोषणा के कारण परमेश्वर के प्रति असन्तोष प्रकट किया। स्वयं की पदोन्नति की अभिलाषा कर और ईश्वरीय न्याय और अधिकार पर सन्देह कर उसने अपने विवेक को उसी मार्ग पर चलने दिया, जिस पर चलकर शैतान का पतन हुआ था।PPHin 62.1

    इन भाईयों को परखा गया, जैसे इनसे पहले आदम को परखा गया था, यह प्रमाणित करने के लिये कि वे परमेश्वर के वचन को मानेंगे और उसमें विश्वास करेंगे या नहीं। उन्हें मनुष्य के उद्धार सम्बंधित प्रयोजन से परिचित कराया गया। उन्हें परमेश्वर द्वारा नियुक्त भेंट चढ़ाने की विधि बताई गई। उन्हें मालूम था कि भेंट के द्वारा उन्हें उद्धारकर्ता में विश्वास की अभिव्यक्ति करनी थी। साथ ही क्षमा के लिए उस पर निर्भरता को स्वीकार करना था और उन्हें यह भी ज्ञात था कि अपने उद्धार की ईश्वरीय व्यवस्था से सहमत होकर वे परमेश्वर की इच्छा के प्रति आज्ञाकारी होने का प्रमाण दे रहे थे। रक्‍त के बहाए जाने के बिना पापों से छुटकारा असंभव था, और अपने पशुओं के समूह के पहलौठों की बलि चढ़ाकर उन्हें प्रायश्चितरूपी मसीह के रक्‍त में अपने विश्वास की प्रतीति करने थी। इसके अलावा, खेत के पहले फलों को धन्यवाद की भेंट के रूप में परमेश्वर को अर्पित करना था।PPHin 62.2

    दोनों भाईयों ने एक समान वेदियों का निर्माण किया और दोनों भेंट लेकर आए । हाबिल ने परमेश्वर के निर्देश के अनुसार पशु की बलि चढ़ाई, “तब यहोवा ने हाबिल और उसकी भेंट को ग्रहण किया ।” स्वर्ग से अग्नि प्रवाहित हुई और भेंट को जला डाला। लेकिन कैन ने परमेश्वर के प्रत्यक्ष और स्पष्ट आज्ञा की अवमानना करते हुए, फलों की भेंट चढ़ाई। स्वर्ग से स्वीकृति का कोई संकेत नहीं आया। हाबिल में अपने भाई से बिनती की कि वह परमेश्वर द्वारा निर्धारित विधि से उससे आग्रह करें, लेकिन उसके अनुनय ने कैन को स्वयं की इच्छा का अनुसरण करने को दृढ़ कर दिया। सबसे बड़ा होने के नाते उसे लगा कि वह अपने भाई के परामर्श से ऊपर है और उसने उसकी सलाह का तिरस्कार किया। बलिदान जिसकी प्रतिज्ञा की गई थी, और बलि की भेंटो के संदर्भ में कैन अपने हृदय में सन्देह और श्रद्धाहीनता के साथ परमेश्वर के सम्मुख आया। उसकी भेंट में पापों के प्रायश्चित की अभिव्यक्ति नहीं थी। उसे लगा, जैसा की आज भी बहुतों को लगता है, कि परमेश्वर की निर्धारित समुचित योजना के पालन करने से अपनी दुर्बलता की स्वीकृति देने जैसा होगा और अपने उद्धार का माध्यम पूर्णतया उद्धारकर्ता के पश्चताप में विश्वास करने जैसा होगा ।उसने आत्म-निर्भरता का मार्ग चुना। वह स्वयं की योग्यता लिये आएगा। वह न ही मेमने को लाएगा और न ही उसके रक्‍त को भेंट मे मिलाएगा, बल्किवह अपने फल--अपने श्रम की उपज लाएगा। अपनी भेंट को परमेश्वर पर एहसान करने जैसे, चढ़कर वह ईश्वरीय स्वीकृति प्राप्त करने की उपेक्षा कर रहा था। कैन ने आज्ञा के अनुसार वेदी बनाई, आज्ञा के अनुसार भेंट लाया, लेकिन उसका आज्ञा पालन अधूरा था। एक उद्धारकर्ता की आवश्यकता का आभास जो सबसे अनिवार्य भाग था, छोड़ दिया गया था।PPHin 62.3

    धार्मिक शिक्षा और जन्म के सन्दर्भ में दोनो भाई बराबर थे। दोनो पापी थे, और दोनो इस बात से सहमत थे कि परमेश्वर आदर और आराधना योग्य है। बाहर से उनका धर्म एक निश्चित सीमा तक समान था, लेकिन इसके परे उनमें बहुत मतभेद था। PPHin 63.1

    “विश्वास ही से हाबिल ने कैन से उत्तम बलिदान परमेश्वर के लिए चढ़ाया”-इब्रानियों 11:4 । हाबिल ने उद्धार के महान रिद्धान्तों को ग्रहण किया । उसने स्वयं को पापी माना और उसने पाप और उसकी दण्डाज्ञा मृत्यु को अपनी आत्मा और परमेश्वर से संगति के बीच खड़े हुए देखा। वह बलिदान हेतु मारा हुआ पशु लेकर आया और इस तरह उसने उल्लंघन की गई आज्ञा के आरोप को स्वीकार किया। बहाए हुए रक्‍त के माध्यम से उसने भविष्य में होने वाले बलिदान की कल्पना की- मसीह का कलवरी के कस पर मरना। प्रायश्चित, जिसका होना निर्धारित था, में विश्वास करते हुए उसने धर्मी होने की गवाही दी और उसकी भेंट स्वीकार हुई ।PPHin 63.2

    कैन को भी हाबिल के समान इस सत्य को सीखने और स्वीकार करने का अवसर मिला। वह एकपक्षीय उद्देश्य का शिकार नहीं था। एक भाई परमेश्वर द्वारा स्वीकत होने के लिये मनोनीत नहीं था और दूसरा अस्वीकृत होने के लिये मनोनीत नहीं था। हाबिल ने विश्वास और आज्ञापालन को चुना और कैन ने अविश्वास और उपद्रव को चुना। यहां सम्पूर्ण विषय स्पष्ट है। PPHin 64.1

    कैेन और हाबिल संसार में समय के अंत तक अस्तित्व में रहने वाली दो श्रेणियों को दर्शाता है। एक श्रेणी पाप के लिये नियुक्त बलिदान कालाभ उठाती है, और दूसरी श्रेणी अपनी योग्यता पर निर्भर होने का प्रयत्न करती है। उनके बलिदान में ईश्वरीय मध्यस्थता के सदगुण का अभाव होता है और इसलिए वह मनुष्य और परमेश्वर का मेल नहीं करा सकता। केवल यीशु की सामर्थ्य के माध्यम से हमारी अवज्ञा की क्षमा प्राप्ति हो सकती है। जिन्हें मसीह के खून की आवश्यकता का आभास नहीं होता, जिन्हें लगता है कि ईश्वरीय अनुग्रह के अभाव में वे अपने कामों के द्वारा परमेश्वर की स्वीकृति पा सकते है, वे वही गलती करते है जो कैन ने की थी। यदि वे पवित्र करने वाले रक्त को ग्रहण नहीं करते वे दण्डाज्ञा के अधीन है। कोई भी अन्य प्रयोजन नहीं है, जिससे मनुष्य को पाप के दासत्व से छुटकारा मिलें ।PPHin 64.2

    संसार का अधिक भाग उपासकों का वह वर्ग है जो कैन के उदाहरण का अनुसरण करते हैं। लगभग प्रत्येक मिथ्यावादी धर्म इसी सिद्धान्त पर आधारित है कि मनुष्य उद्धार के लियेस्वयं के प्रयत्नों पर निर्भर कर सकता है। कुछ का यह भी कहना है कि मानव जाति को उद्धार की नहीं, विकास की आवश्यकता है- वह स्वयं को शुद्ध करने, बौद्धिक व नैतिक स्तर पर उठाने और अवस्था सुधारने मे सक्षम है। जैसे कैन ने सोचा कि रक्‍तरहित बलिदान की भेंट से ईश्वरीय स्वीकृति प्राप्त कर सकता है, वैसे ही यह वर्ग पश्चताप के बिना, मानवता को ईश्वरीय मानक तक उठाने की अपेक्षा करता है। कैन का इतिहास ऐसी भेंट के परिणाम बताता है। वह बताता है कि मसीह से अलग मनुष्य क्या रूप धारण करेगा। मानवता स्वयं को पुनः उत्पन्न करने में असमर्थ है। वह ईश्वरत्व की ओर ऊपर नहीं जाती, वरन शैतानियत की तरफ नीचे को आती है। मसीह ही हमारी एकल आशा है। प्रेरितों के काम 4:12 में लिखा है, “और किसी दूसरे के द्वारा उद्धार नहीं, क्‍योंकि स्वर्ग के नीचे मनुष्यों में और कोई दूसरे नाम नहीं दिया गया, जिसके द्वारा हम उद्धार पा सके” ।PPHin 64.3

    सच्चा विश्वास, जो पूर्णतया मसीह पर निर्भर करता है, परमेश्वर की समस्त अपेक्षाओं की आज्ञाकारिता में प्रकट होगा। आदम के समय से वर्तमान समय तक महान संघर्ष परमेश्वर की आज्ञा के पालन से सम्बन्धित है। सभी युगों में ऐसे मनुष्य रहे हैं जो परमेश्वर की आज्ञाओं को मान्यता न देकर भी उसका उनके पक्ष में होने का अधिकार चाहते थे। लेकिन पवित्र-शास्त्र कहता है कि कर्मा से, विश्वास सिद्ध हुआ’ और आज्ञापालन के कर्मा के अभाव में विश्वास ‘मृत’ है! जेम्स 2:22, 17 PPHin 65.1

    “जो कोई यह कहता है, कि में उसे जान गया हूँ और उसकी आज्ञाओं को नहीं मानता, वह झूठा है,और उस में सत्य नहीं ।“यहुन्ना 2:4PPHin 65.2

    जब कैन ने देखा कि उसी भेंट स्वीकार नहीं हुई, तो वह परमेश्वर और हाबिल पर कोधित हुआ, वह परमेश्वर पर कोधित हुआ, क्योंकि उसने धर्मानुसार विधिवत बलि के एवज में मनुष्य का विकल्प स्वीकार नहीं किया, और कैन से इसलिए कुध हुआ कि बजाय उपद्रव मे उसका साथ देने के, उसने परमेश्वर का कहना माना। कैन के पवित्र आज्ञा की अवमानना करने के बावजूद परमेश्वर ने उसे पूरी तरह नहीं छोड़ा बल्कि उस मनुष्य के साथ तक-वितक करना स्वीकार कियाजिसने स्वयं को इतना अविवेकपूर्ण प्रमाणित किया था। और परमेश्वर ने कैन से कहा-“तू क्‍यों कोधित हुआ? और तेरे मुँह पर उदासी क्यो छा गई है? एक स्वर्गदूत सन्देशवाहक द्वारा ईश्वर की चेतावनी दी गई थी “यदि तू भला करे, तो क्या तेरी भेंट ग्रहण न की जाएगी? और यदि तू भला न करे तो पाप द्वार पर छिपा रहता है, और उसकी लालसा तेरी ओर होगी।” चुनने का अधिकार कैन के पास था। यदि वह प्रतिश्रुत उद्धारकर्ता की सामर्थ्य में विश्वास रखता और परमेश्वर की अपेक्षाओं में खरा उतरता तो परमेश्वर उसके पक्ष में होता। लेकिन यदि वह अविश्वास और आज्ञा उल्लंघन में बना रहता उसके पास आरोप का आधार न होता क्योंकि वह परमेश्वर द्वारा अस्वीकत होता।PPHin 65.3

    लेकिन अपने पाप का अंगीकारकरने के बजाय, कैन परमेश्वर के अन्यायी होने का आरोप लगाता रहा और हाबिल के प्रति ईर्ष्षा और घृणा को पालता रहा। उसने कोध अपने भाई को भला-बुरा कहा में और उसे परमेश्वर के, उनके प्रति, व्यवहार सम्बन्धी वाद-विवाद में घसीटने का प्रयत्न किया। यद्यपि नम्नरता से, पर निडर और दृढ़ होकर हाबिल ने परमेश्वर की अच्छाई और न्याय प्रियता का समर्थन किया। उसने कैन की गलती की ओर संकेत किया और उसे समझाने की कोशिश की कि वह अपने आप में गलत था। उसने कैन और उसके माता-पिता को परमेश्वर द्वारा तत्कालिक मृत्युदण्ड के बजाए जीवन-दान देने में परमेश्वर की दयालुता की ओर संकेत किया और दृढ़ता पूर्वक अनुनय किया कि परमेश्वर उनसे प्रीति रखता है, नही तो उसने उनकी दण्डाज्ञा को भुगतने के लिये अपने पवित्र और निष्पाप पुत्र को नहीं दिया होता। इस सब से कैन और भी उत्तेजित हुआ। तर्क और अन्तरात्मा ने उसे हाबिल के सही के पक्ष में होने का संकेत दिया, लेकिन वह इस बात से कोधित हुआ कि जो अपने भाई की सलाह मानने का अभ्यस्त था, अब वही उसके असहमत होने की कल्पना कर रहा था और यह कि उसे उसके विद्रोह में हाबिल से कोई समर्थन नहीं मिलेगा। PPHin 65.4

    कैन ने घृणा की और अपने भाई को मार डाला, किसी गलत कार्य के लिए नहीं बल्कि इस कारण कि “उसके काम बुरे थेऔर उसके भाई के काम धर्म क थे”-यहुन्ना 3:12। इसी तरह हर युग में हाबिल दुष्टो ने स्वयं से श्रेष्ठतर मनुष्यों से घृणा की है। हाबिल का आज्ञाकारिता और अडिग विश्वास से पूर्ण जीवन कैन के लिये चिरस्थाई निनदा थी। यहुन्ना 3:20 में लिखा है, “क्योंकि जो कोई बुराई करता है, वह ज्योति से बैर रखता है, और ज्योति के निकट नहीं आता, ऐसा न हो कि उसके कामों पर दोष लगाया जाए।” परमेश्वर के निष्ठावान सेवकों के चरित्र से प्रतिबिंबित ईश्वरीय प्रकाश जितना अधिक प्रजजलित होता है उतनी ही अधिक स्पष्टता से अधर्मी मनुष्यों के पाप उजागर होते हैं और उनकी शान्ति भंग करने वालों का विनाश करने के उनके प्रयत्न और भी दृढ़ हो जाते हैं।PPHin 66.1

    परमेश्वर ने घोषणा की थी कि स्त्री के बीज और सर्प शैतान व उसकी प्रजा और मसीह व उसके अनुनायिययों के बीच शत्रुता का वास होगा और हाबिल की हत्या इसका पहला उदाहरण थी। शैतान ने, मनुष्य के पाप के माध्यम से, मानव जाति पर नियन्त्रण पा लिया था लेकिन मसीह मानव को इस योग्य बनाता है कि वह शैतान के दमनकारी शासन से छुटकारा पा सकें ।PPHin 66.2

    जब भी परमेश्वर के मेम्ने में विश्वास द्वारा कोई आत्मा पाप के कार्य करना छोड़ देता है, शैतान का कोध भड़क उठता है। हाबिल के पवित्र जीवन ने शैतान के.दावे का, कि मनुष्य के लिए परमेश्वर की आज्ञा का पालन करना असम्भव है, खण्डन किया। जब कैन ने, दुष्ट की आत्मा से प्रभावित होकर देखा कि वह हाबिल पर नियंत्रण नहीं पा सकता तो वह रोष से भर गया और उसने अपने भाई के जीवन का अन्त कर दिया। और जहां भी परमेश्वर की व्यवस्था की धार्मिकता को प्रमाणित करने लोग खड़े होंगे, वहां उनके विरूद्ध इस भावना को प्रकट किया जाएगा। यहीं वह भावना है जिसने हर युग में खूंटे को गाढ़कर, मसीह के अनुनायियों के लिए ज्वलंत ढेर को सुलगाया है। लेकिन यीशु के अनुयायी पर थोपी गईं यातनाएं शैतान और उसकी सेना द्वारा प्रारम्भ की गई है क्योंकि वह उसे अपने अधीन करने क लिए विवश नहीं कर पाया। यह एक पराजित शत्रु का रोष है। यीशु से सम्बन्धित सत्य व धर्म के लिये मरने वाला हर मनुष्य विजयी होकर मरा। प्रकाशतिवाक्य 12:11, 9 में भविष्यवक्ता कहता है, “और वे मेम्ने के लहू के कारण और अपनी गवाही के वचन के कारण उस पर (वह पुराना सर्प इबलीस और शैतान) जयवन्त हुए, और उसके दूत उसके साथ गिरा दिए गए” । PPHin 66.3

    हत्यारे कैन को अपने अपराध के स्पष्टीकरण के लिये बुलाया गया। “परमेश्वर ने कैन से कहा, तेरा भाई हाबिल कहाँ है? और कैन ने उत्तर दिया, मुझे हीं मालूम, क्‍या मैं अपने भाई का रखवाला हूँ?” कैन पाप में इतनीदूर चला गया था कि उसे परमेश्वर की परस्पर उपस्थिति, उसकी महानता और उसके सर्वज्ञानी होने का आभास ही नहीं रहा। इन कारण अपने अपराध बोध को छिपाने हेतु उसने झूठ का सहारा लिया।PPHin 67.1

    परमेश्वर ने कैन से फिर कहा, “यह तूने क्‍या किया? तेरे भाई का लहू भूमि में से मेरी ओर चिल्लाकर मेरी दुहाई दे रहा है।” परमेश्वर ने कैन को अपने पाप को स्वीकार करने का अवसर दिया था। उसके पास चिंतन करने का समय था। उसे अपने द्वारा किये गए कृत्य की गम्भीरता और उसे छिपाने के लिये बोला गया झूठ ज्ञात थे लेकिन अभी भी वह उपद्रवी था और अब दबण्डाज्ञा को विलम्बित नहीं किया गया। जो पवित्र वाणी निवेदन और परामर्श में सुनाई पड़ती थी, उसी ने कठोर शब्दों में उच्चारण किया, “इसलिए अब तू उस भूमि की ओर से शापित है, जिसने तेरे भाई का लहू तेरे हाथ से पीने के लिये अपना मुहँ खोला है।” चाहे तू भूमि पर खेती करे, तौभी उसकी पूरी उपज फिर तुझे न मिलेगी, और तू प्थ्वी पर खानाबदोश और भगोड़ा होगा” । PPHin 67.2

    इसके बावजूद कि दण्डाज्ञा कैन के अपराध का परिणाम थी, दयालु सृष्टिकर्ता ने उसके प्राण नहीं लिए और उसे पश्चताप का अवसर प्रदान किया। लेकिन कैन केवल अपने हृदय को कठोर बनाने हेतु ईश्वरीय सत्ता के विरूद्ध उपद्रव को बढ़ावा देने हेतु और निर्भक, परित्यक्त पापियों के वंश का मुखिया बनने के लिये जीवित रहा। यही एक अधर्मी, शैतान के नेतृत्व में, दूसरों के लिये प्रलोभन देने वाला सिद्ध हुआ, और उसके उदाहरण और दुष्प्रभाव ने नीतिग्रष्ट करने वाली प्रवृति को प्रवाहित किया, जब तक कि धरती इतनी विक॒त और करतापूर्ण हो गई कि उसका विनाश करना पड़ा ।PPHin 67.3

    प्रथम हत्यारे को प्राण-दान देने में परमेश्वर ने समस्त सृष्टि के सम्मुख महान संघर्ष से सम्बन्धित शिक्षा को रखा। कैन और उसके वंश का निराशाजनक इतिहास एक दृष्टांत था जो प्रमाणित कर सकता था कि यदि पापी के लिए जीवित रहने की अनुमति दे दी जाती तो क्‍या परिणाम होता। परमेश्वर की सहनशीलता ने दुष्टों को उनके पाप में और भी निर्भक और उद्धत बना दिया। कैन को दी गई दबण्डाज्ञा के पन्द्रह दशकों के पश्चात सृष्टि ने अपराध और प्रदूषण से भरी धरती में उसके प्रभाव और उदाहरण का फलवन्त होना देखा।PPHin 68.1

    यह प्रकट किया गया कि परमेश्वर की व्यवस्था की अवज्ञा करने पर मृत्यु की दण्डाज्ञा न्यायसंगत और दयावान थी। जितना ज्यादा समय मानव पाप में व्यतीत करता, वह उतना ही परित्यक्त होता जाता। अनियंत्रित दुष्टता के कार्यकाल को घटाकर और जगत को कठोर हुए आक्रमणकारियों के दुष्टप्रभाव से स्वतन्त्र कराकर, पवित्र दण्डाज्ञा श्राप के बजाय आशीर्वाद प्रमाणित हुईं । PPHin 68.2

    शैतान हजारों स्वांगो में प्रबलता के साथ परमेश्वर की सत्ता और स्वभाव का गलत प्रतिनिधित्व करने में कार्यरत है। वह विस्तृत, सुव्यवस्थित योजनाओं को अपने छलावे मे पकड़े रखने के लिये प्रयत्नशीन है। परमेश्वर, वह एक, जो अनंत और सर्वज्ञानी है, अन्त को प्रारम्भ से देखता है और पाप से सम्बन्धित उसकी योजनाएंदूरदर्शी और विस्तारपूर्ण थी। उसका उद्देश्य केवल विद्रोह का दमन करना ही नहीं था, बल्कि समूचे जगत को विद्रोह का स्वभाव बतलाना था। परमेश्वर की योजना, उसके न्याय और कृपा को दिखाते हुए, बुराई से सम्बन्धित व्यवहार मेंडसके विवेक और उसकी धार्मिकता को प्रमाणित करते हुए, स्पष्ट हो रही थी ।PPHin 68.3

    अन्य ग्रहों के निवासी धरती पर हो रही घटनाओं को अत्यन्त रूचि से देख रहे थे। जल-प्रलय से पूर्व संसार की अवस्था में, मसीह के प्रभुत्व को अस्वीकार करने में और उसकी व्यवस्था को टालने में उन्होंने लूसिफेर के शासन-दप्रबन्ध, जिसका संस्थापन उसने स्वर्ग में करने का प्रयत्न किया, के परिणाम को सोदाहरण देखा। जल प्रलय पूर्व संसार के उद्धत पापियों में उन्होंने उस प्रजा को देखा जो शैतान के अधीन थी। “उनके मन के विचार मे जो कुछ उत्पन्न होता है निरन्तर बुरा ही होता है ।”-उत्पत्ति 6:5 [हर एक मनोभाव, आवेग और कल्पना, पवित्रता, शान्ति और प्रेम के ईश्वरीय सिद्धान्तों से असंगत था। यह भंयकर दुष्टता, परमेश्वर के रचित प्राणियों पर से पवित्र व्यवस्था के नियंत्रण को हटा देने की शैतान की योजना के परिणाम का उदाहरण थी। PPHin 68.4

    महान संघर्ष के प्रगति में स्पष्ट हुए तथ्यों के माध्यम से परमेश्वर शासन सम्बन्धी अपने नियमों के सिद्धान्तों को सोदाहरण बतलाएगा जिन्हें शैतान और उसके छलावे में आए लोगों द्वारा झूठा ठहराया गया था। उसके न्याय को अन्त में सम्पूर्ण जगत की स्वीकृति मिलेगी, लेकिन तब तक विरोधियों के बचाए जाने के लिये बहुत देर हो चुकी होगी ।जैसे-जैसे परमेश्वर की श्रेष्ठ योजना सम्पूर्णपूर्ति की तरफ अग्रसर होती है, परमेश्वर समस्त सृष्टि की स्वीकृति और समर्थन अपने साथ लिये चलता है। विद्रोह के उन्मूलन के अन्तिम चरण में भी, ऐसा देखा जाएगा कि उन सब ने जिन्होंने पवित्र नियमों का त्याग किया है, उन्होंने मसीह के विरूद्ध युद्ध में शैतान का पक्ष लिया। जब इस संसार के राजकुमार का न्याय होगा और उनका भी जो उसक साथ जुड़ गए थे, उसी के नियति के भागीदार होंगे और समस्त सृष्टि दण्डाज्ञा के साक्षी के तौर पर घोषणा करेंगी, “तेरे मार्ग सच्चे और धार्मिकता से भरे हुए है, सभी जातियों का राजा”। प्रकाशित वाक्य 15:3PPHin 69.1

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