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कुलपिता और भविष्यवक्ता - Contents
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    अध्याय 17—याकूब का भागना और प्रवास

    यह अध्याय उत्पत्ति 28—31 पर आधारित है

    ऐसाव के कोध के कारण मृत्यु के डर से, याकूब निराश्रित होकर अपने पिता के घर से चला गया, लेकिन अपने साथ अपने पिता के आशीर्वाद को ले गया। इसहाक ने उसके लिये वाचा की प्रतिज्ञा को नवीकत किया और याकूब को उसका उत्तराधिकारी बनाकर उसे मेसोपोतामियास्थित उसकी माँ के परिवार से पत्नी लाने की आज्ञा दी। फिर भी अत्यन्त अशान्त मन से याकूब वीरान यात्रा पर निकल पड़ा। अपने हाथ में सिफ लाठी लिये उसे घुमक्कड़ असमभ्य जनजातियों से जनपूर्ण देश के बीच से कई मीलों का सफर करना था। पश्चताप और डर के कारण वो मनुष्यों से छुपाता रहा, ताकि उसका कोधित भाई उसे दूँढ न पाए। उसे डर था कि उसने हमेशा के लिये उस आशीर्वाद को खो दिया जिसे परमेश्वर उसे देना चाहता था और शैतान उस पर प्रलोभनों द्वारा हावी होना चाहता था। PPHin 180.1

    दूसरे दिन की संध्या में उसने स्वयं को अपने पिता के तम्बुओं से बहुत दूर पाया। उसे लगा कि वह एक परित्यक्त था और यह जानता था कि उसके गलत मार्ग को चुनने के कारण यह विपत्ति उस पर आ पड़ी थी। निराशा का अन्धकार उसकी आत्मा पर छा रहा था और वह प्रार्थना करने का भी दुस्सहास नहीं कर सका। वह इतना अकेला था कि उसे परमेश्वर की ऐसी सुरक्षा की आवश्यकता का आभास हुआ, जैसे पहिले कभी नहीं हुआ था। रोते हुए और अत्यन्त दीनता के साथ उसने अपने पाप का अंगीकार किया और किसी ऐसे प्रमाण की विनती की जिससे उसे पता लगे कि उसे पूरी तरह छोड़ नहीं दिया गया है। लेकिन उसके बोझिल हृदय को चैन नहीं मिला। वह स्वयं में पूरा विश्वास खो चुका था और उसे डर था कि उसके पूर्वजों के परमेश्वर ने उसे छोड़ दिया था। PPHin 180.2

    लेकिन परमेश्वर ने उसे छोड़ा नहीं था। उसकी कूपा अपने भटके हुए सन्देही दास पर अभी भी बनी हुई थी। परमेश्वर ने सहानुभूतिपूर्वक वही प्रकट किया जिसकी याकूब को आवश्यकता थी-एक उद्धारकर्ता । उसने पाप किया था लेकिन जब उसने परमेश्वर के पक्ष में पुन: स्थापित होने के माध्यम को प्रकट रूप से देखा, उसका हृदय कृतज्ञता से भर गया।PPHin 180.3

    यात्रा से थक कर चूर, पथिक एक पत्थर को अपना तकिया बनाकर, जमीन पर लेट गया। नींद में उसने एक उज्जवल जगमगाती सीढ़ी को देखा, जिसका निचला हिस्सा जमीन पर टिका था और दूसरा सिरा स्वर्ग तक पहुँच रहा था। परमेश्वर के दूत उस पर उतर-चढ़ रहे थे और उसके ऊपर परमेश्वर का तेज था और स्वर्ग से एक स्वर सुनाई दिया, “मैं यहोवा, तेरे दादा अब्राहम का परमेश्वर और इसहाक का भी परमेश्वर हूँ।” वह जिस भूमि पर वह निराश्रित और निर्वासित की तरह लेटा था, उसके और उसके वंशजों के लिये प्रतिज्ञाबद्ध की गई और उसे आश्वासन दिया गया, “तेरे और तेरे वंश के द्वारा पृथ्वी के सारे कुल आशीष पाएँगे।” यह वचन अब्राहम और इसहाक को दिया गया था और अब इसे याकूब के लिये नवीकृत किया गया। और फिर उसकी वर्तमान पीड़ा और अकेलेपन को विशेष रूप से ध्यान में रखते हुए सात्वंना और प्रोत्साहन भरे शब्द बोले गए, “मैं तेरे संग रहूंगा और जहाँ कहीं तू जाए वहाँ तेरी रक्षा करूँगा, और तुझे इस देश में लौटा ले आऊंगा, मैं अपने कहे हुए को जब तक पूरा न कर लूँ तब तक तुझ को न छोड़ूंगा ।” PPHin 181.1

    परमेश्वर उन कुप्रभावों को जानता था जो याकूब को घेरे रहते और उन खतरनाक परिस्थितियों को भी जिनके प्रति वो अरक्षित होता। कृपा करते हुए परमेश्वर ने पश्चातापी पापी के सामने भविष्य को उजागर किया, ताकि वह स्वयं के संदर्भ में ईश्वरीय योजना को समझ सकें और षड़यन्त्रकारियों और मूर्तिपूजा करने वाले लोगों के साथ अकेले होने पर निश्चित रूप से आने वाले प्रलोभनों से स्वयं को बचा सके। उसके सामने स्थायी रूप से एक उच्च मापक था जो उसका लक्ष्य था और परमेश्वर की योजना का उसके द्वारा सम्पन्न होने का ज्ञान उसे लगातार विश्वसनीयता के लिये प्रेरित करता। PPHin 181.2

    स्वप्नदर्शन में याकूब के सामने उद्धार की योजना प्रस्तुत की गई, पूरी तो नहीं, लेकिन वह अंश जो उस समय उसके लिये आवश्यक थे। स्वप्न में दिखाई गईं रहस्यमयी सीढ़ी वही थी, जिसका उल्लेख मसीह ने नतनएल के साथ वार्तालाप के दौरान किया था। उसने कहा, “तुम स्वर्ग को खुला हुआ और परमेश्वर के स्वर्गदूतों को मनुष्य के पुत्र को ऊपर से उतरते और ऊपर जाते देखोगे ।” परमेश्वर के राज के विरूद्ध मनुष्य के अतिक्रमण के समय तक परमेश्वर और मनुष्य के बीच स्वतन्त्र रूप से संपर्क होता था। लेकिन आदम और हवा के पाप ने पृथ्वी को स्वर्ग से अलग कर दिया, जिससे कि मनुष्य अपने सृष्टिकर्ता से संपर्क न कर सके। लेकिन फिर भी जगत को अकेले व आशाहीन अवस्था में नहीं छोड़ा गया। सीढ़ी प्रतीक है मसीह का जो संपर्क का नियुक्त माध्यम है। पाप द्वारा बनी खाड़ी को अपनी सामर्थ्य से सेतुबद्ध नहीं किया होता तो सहायक स्वर्गदूत पतित मनुष्य के साथ संपर्क करने में असमर्थ होते। मसीह दुर्बल और असहाय मनुष्य को अनन्त शक्ति के स्रोत के साथ जोड़ देता है।यह सब याकूब को स्वप्न में बताया गया। हालाँकि उसके विवेक ने प्रकाशित वाक्य के कुछ भाग को एकदम समझ लिया, लेकिन उसके महान और रहस्यमयी सत्य उसके जीवनभर का चिंतन था और उसकी समझ के लिये अधिक से अधिक खुलासा करता रहा । PPHin 181.3

    रात के गहरे सन्‍नाटे में याकूब अपनी नींद से जागा। उसके स्वप्नदर्शन की कांतिमान आकृतियाँ अदृश्य हो गई थी। सुनसान पहाड़ियों की धुंधली रूप-रेखा, और उनके ऊपर तारागण से दीप्तिमान आकाश पर उसकी दृष्टि पड़ी। लेकिन उसे एक पवित्र आभास था कि परमेश्वर उसके साथ था। उस एकान्त को एक अनदेखी उपस्थिति ने भर दिया। उसने कहा,निश्चय ही इस स्थान में यहोवा है, और मैं इस बात को न जानता था.......यह तो परमेश्वर के भवन को छोड़ और कुछ नहीं हो सकता, वरन्‌ यह स्वर्ग का फाटक ही होगा। PPHin 182.1

    “भोर को याकूब उठा, और अपने तकिए का पत्थर लेकर उसका खम्भा खड़ा किया, और उसके ऊपरी सिरे पर तेल डाल दिया।” महत्वपूर्ण घटनाओं को श्रंद्धाजलि देने की रीति के अनुसार, याकूब ने परमेश्वर की करूणा का एक स्मारक स्थापित किया, ताकि जब भी वह उस मार्ग से गुजरे वह उस पवित्र स्थान पर रूककर परमेश्वर की आराधना करे। उसने उस स्थान का नाम बेतेल रखा जिसका मतलब है, “परमेश्वर का घर” । बहुत कृतज्ञता के साथ उसने उस प्रतिज्ञा को दोहराया कि परमेश्वर की उपस्थिति हमेशा उसके साथ होगी और फिर उसने यह पवित्र शपथ ली, “यदि परमेश्वर मेरे संग रहकर इस यात्रा में मेरी रक्षा करें, और मुझे खाने के लिये रोटी, और पहिनने के लिये कपड़ा दे, और मैं अपने पिता के घर में कुशल क्षेम से लौट आँऊ, तो यहोवा मेरा परमेश्वर ठहरेगा। और यह पत्थर, जिसका मैंने खम्भा खड़ा किया है, परमेश्वर का भवन रहेगा, और जो कुछ तू मुझे दे उसका दश्वांश मैं अवश्य ही तुझे दिया करूंगा।PPHin 182.2

    याकूब यहां परमेश्वर के साथ शर्तें नहीं रख रहा था। परमेश्वर उसे समृद्धि का आश्वासन दे चुका था और यह शपथ परमेश्वर के प्रेम और कृपा के आश्वासन के लिये कृतज्ञता से पूर्ण हृदय का बहिर्रवाह था। याकूब को लगा कि परमेश्वर का उसपर अधिकार है और उसे यह बात माननी चाहिये, और उसे प्रदान किये गए ईश्वर की कृपा के विशेष प्रतीक बदले में कुछ मांगते थे। इसी तरह हमें दी गई हर आशीष हम पर की गई करूणा के कर्ता के प्रति प्रतिक्रिया की मांग करती है। हर मसीही को अपने बीते जीवन का प्राय: समीक्षा करनी चाहिये और धन्यवाद के साथ उन महत्वपूर्ण छुटकारों को याद करना चाहिये जो मसीह के माध्यम से उसे मिले थे, संकट के समय उसकी सहायता सब कुछ अन्धकारमय और भयानक प्रतीत होने पर उसके सम्मुख मार्ग निकालने में उपाय, जब वह बेहोरा होने का था उसे तरो ताजा करने में इन सब को उसे स्वर्गदूतों की देख-रेख के परिणामों की तरह मान्यता देनी चाहिये। इन असंख्य आशीषों को ध्यान में रखते हुए, उसे कृतज्ञतापूर्ण व वशीभूत हृदय से प्राय: पूछना चाहिये, “यहोवा ने मेरे जितने उपकार किये है, उनका बदला मैं उसके क्‍या दूँ। PPHin 182.3

    हमारा समय, हमारे तोड़े, हमारी सम्पत्ति उसी को समर्पित होना चाहिये जिसने विश्वास में हमे यह आशीष दी हैं। हमारे लिये मुक्ति का कोई भी कार्य किया गया हो या हम पर अप्रत्याशित दया की गई हो तो हमें अपने आभार की अभिव्यक्ति ना केवल शब्दों में, वरन्‌ परमेश्वर के काम के लिये दान व उपहारों से करके परमेश्वर की अच्छाई का अंगीकार करना चाहिये। जैसे हम लगातार परमेश्वर की आशीषों को प्राप्त कर रहे है, वैसे ही हमें लगातार देते रहना चाहिये। PPHin 183.1

    याकूब ने कहा, “जो कुछ तू मुझे दे उसका दश्वांश मैं अवश्य ही तुझे दिया करूँगा ।” क्या हमें, जो सुसमाचार के विशेषाधिकार और सम्पूर्ण प्रकाश का आनन्द लेते है, परमेश्वर को उन से कम देकर सन्तुष्ट होना चाहिये जिनके पास इतना प्रकाश नहीं था? नहीं, यदि वे आशीषें, जिनका हम आनन्द उठाते हैं, उनसे ज्यादा है, तो क्या उसके परिणामस्वरूप हमारे कर्तव्य नहीं बढने चाहिये? लेकिन कितना कम है ये अनुमान उस अकल्पनीय मोल के उपहार व अथाह प्रेमका गणितीय नियमोा; समय,धनऔरप्रेमके आधार पर आंकलन करने का प्रयत्न कितना व्यर्थ है! मसीह के लिये दश्वांश! आह तुच्छ दान, शर्मनाक प्रतिदान उसके लिये जोमूल्य बहुमूल्य था! कलवरी के कस से परमेश्वर अनारक्षित समर्पण के लिये बुलाता है। जो कुछ भी हमारे पास है, जो कुछ भी हम है, परमेश्वर को समर्पित होना चाहिये।PPHin 183.2

    ईश्वरीय प्रतीज्ञाओं में एक नये अटूट विश्वास के साथ और स्वर्गदूतों की सुरक्षा और उपस्थिति से आश्वस्त याकूब ने ‘पूर्बियों के देश” उत्पत्ति 29:1की ओर अपनी यात्रा को जारी रखा। लेकिन कितना भिन्‍न था यह आगमन, लगभग सौ साल पूर्व अब्राहम के संदेशवाहक के आगमन से! वह सेवक, बहुत से अनुचरों के साथ ऊँटो पर सवार व सोने चांदी के बहुमूल्य उपहार लेकर आया था, पुत्र एक अकेला, पैरों से जख्मी यात्री था, जिसके पास छड़ीके अलावा और क॒छ नहीं था। अब्राहम के सेवक की तरह याकूब भी क॒एं के पास रूका और यही वह स्थान था जहां उसकी मुलाकात लाबान की छोटी बेटी, राहेल से हुई। अब वह याकूब था जिसने कुए से पत्थर हटाकर, भेड़ों के झुण्ड को पानी पिलाकर सेवा की। उसके द्वारा अपनी रिश्तेदारी ज्ञात कराने पर, उसका लाबान के घर में स्वागत किया गया। हालाँकि वह खाली हाथ व अकेला आया था, कुछ ही सप्ताहों ने उसकी कर्मठता और कौशल का महत्व दिखा दिया और उसने रूकने के लिये आग्रह किया गया। तय हुआ कि राहेल का हाथ मांगने के लिये उसे सात वर्ष की सेवा करनी होगी । PPHin 184.1

    प्राचीन काल में रीति के अनुसार विवाह के सत्यापन से पहले वर अपनी पत्नी के पिता को, अपनी परिस्थितियों के अनुसार कुछ धनराशि या सम्पत्ति के रूप में उसका समतुल्य देता था। इसे वैवाहिक सम्बन्ध के लिये जमानत माना जाता था। पिता अपनी पुत्रियों की प्रसन्‍नता के सन्दर्भ में उन पुरूषों पर विश्वास करना उचित नहीं समझते थे जिन्होंने एक परिवार के भरण-पोषण के लिये प्रावधान नहीं किया हो। यदि उनके पास व्यवसाय का प्रबन्धन करने और मवेशियों या भूमि का अधिग्रहण करने के लिये पर्याप्त मितव्ययिता और सामर्थ्य नहीं होता था, तो ऐसा माना जाता था कि उनका जीवन निरथक॑ होगा। लेकिन जिनके पास पत्नी के लिये कुछ भी देने को नहीं होता था, उनको परखने के लिए एक परीक्षा का प्रावधान था, उन्हें उस पिता के लिये श्रम करने की अनुमति दी जाती थी जिसकी बेटी से वे प्रेम करते थे; समय की अवधि देय दहेज के मूल्य के आधार पर विनियमित की जाती थी। जब विवाह का प्रस्ताव रखने वाला अपनी सेवाओं में विश्वासयोग्य होता और अन्य विषयों में योग्य साबित होता, तो वह उस घर की बेटी को अपनी पत्नी के रूपमें पा लेता, और साधारणतया जो दहेज विवाह के समय पिता को मिलता था, वह पुत्री को दे दिया जाता था। राहेल और लिआ के मामले में, स्वार्थी होकर लाबान ने उन्हें दिये जाने वाले दहेज को अपने पास रख लिया; मेसोपोतामिया से पलायन करने के पूर्व उसकी पुत्रियों ने इस बात का उल्लेख किया, “उसने हम को तो बेच डाला और हमारी धनराशि को खा बैठा है।”PPHin 184.2

    यद्यपि इस प्राचीन परम्परा का कभी-कभी दुरूपयोग होता था, जैसा कि लाबान द्वारा किया गया, लेकिन इसके परिणाम फलदायक होते थे। जब विवाहार्थी को दुल्हन की प्राप्ति के लिये श्रम करना पड़ता था, तो एक जल्दबाजी के विवाह से बचा जा सकता था और उसके प्रेम की थाह को, और परिवार का भरण-पोषण करने की योग्यता को परखने का अवसर मिल जाता था। हमारे समय में इसके विपरीत मार्ग चुनने से कई बुराईयाँ उत्पन्न हो जाती है। प्राय: ऐसा होता है कि विवाह से पूर्व भावी युगलों को एक दूसरे के स्वभाव और आदतों को जानने का बहुत कम अवसर मिलता है, और जहां तक नित्य जीवन का सवाल है, जब वह विवाह के समय अपनी रूचियों को एक करते है वे एक-दूसरे के लिये लगभग अपरिचित होते हैं। कई बहुत समय पश्चात समझ पाते है कि वे एक-दूसरे के अनुकूल नहीं है और उनके मेल का परिणाम होता है, जीवन भर की असन्तुष्टि । प्रायः पत्नी और संतानों को पति और पिता की भ्रष्ट आदतों या उसके आलस्य व अयोग्यता के कारण कष्ट उठाते हैं। यदि, प्राचीन परम्परा के अनुसार विवाहार्थी का चरित्र विवाह से पहले परख लिया जाए तो अत्याधिक अप्रसनन्‍नता को रोका जा सकता था। PPHin 185.1

    याकूब ने राहेल के लिये निष्ठापूर्ण सेवा के सात वर्ष दिये और सेवा के वह साल उसे कुछ ही दिनों के बरकार लगे क्योंकि वह उससे बहुत प्रेम करता था। लेकिन स्वार्थी और लालची लाबान ने इतने उपयोगी सहायक को रोकने की इच्छा के कारण राहेल के स्थान पर लिआ कोस्थानापनन्‍न कर एक निर्दयी छल किया। इस तथ्य को जान कि लिआ स्वयं धोखेबाज की समर्थक थी, याकूब में यह भावना उत्पन्न हुई कि वह लिआ से प्रेम नहीं कर सकता था। जब याकूब ने लाबान को कोधपूर्ण उलाहना दी तो लाबान ने राहेल के लिये उसे सात वर्ष और सेवा करने को कहा और यह भी आग्रह कि वह लिआ का परित्याग न करे, क्योंकि उससे परिवार का अपमान होता। इस तरह याकूब बड़ी कष्टपूर्ण व पीड़ादायक स्थिति में पड़ गया, अन्ततः उसने लिआ को साथ रख राहेल से विवाह करने का निर्णय लिया। राहेल से वह अधिक प्रेम करता था, और उसकी इस प्राथमिकता ने इर्ष्या व द्वेष को उत्तेजित किया ओर लिआ और राहेल की प्रतिद्दंद्धेता के कारण उसका जीवन कटुता से भर गया।PPHin 185.2

    बीस वर्षों तक याकूब मेसोपोतामिया में रहा और लाबान की सेवा करता रहा जो रिश्तों के बन्धचन को कोई महत्व न देकर इस सन्धि के लाभ को स्वयं के लिये सुरक्षित करने में लगा रहा। अपनी दोनो पुत्रियों के लिये उसने चौदह वर्षा की मांग की और बची हुई अवधि में उसकी पगार दस बार बदली गईं । याकूब की सेवा परिश्रमी व विश्वसनीय थी। उनके अन्तिम साक्षात्कार के दौरान लाबान से कहे वाक्य उसकी अथक जागरूकता का जो उसने अपने कठोर श्रमसाध्य स्वामी के लाभ के लिये दी थी, विस्तृत रूप से वर्णन करते हैं। “बीस वर्षा तक मैं तेरे घर में रहा, इनमें न तो तेरी भेड़-बकरियों के गर्भ गिरे, और न तेरे मेढों का मांस मैंने कभी खाया। जिसे बनेले जन्तुओं ने फाड़ डाला उसको मैं तेरे पास नहीं लाता था, उसकी हानि मैं ही उठाता था, चाहे दिन को चोरी जाता, चाहे रात को, तू मुझ ही से उसको ले लेता था। मेरी तो यह दशा थी कि दिन को तो धाम और रात को पाला मुझे खा गया और नींद मेरी आंखो से भाग जाती थी।’ PPHin 186.1

    रात-दिन भेड़ बकरियों की चौकसी करना चरवाहे के लिये अनिवार्य था। उन पर चोरों और असंख्या, दुस्साहसी, असुरक्षित झुण्डो में तबाही मचाने वाले जंगली जन्तुओं का खतरा हमेशा बना रहता था। याकूब के पास लाबान के बहुसंख्य भेड़-बकरियों की देख-रेख के लिये कई सहायक थे, लेकिन उन सब का दायित्व उसी पर था। वर्ष के कुछ महीनों में उसका व्यक्तिगत रूप से भेड़-बकरियों के साथ होना आवश्यक हो जाता था, ताकि ग्रीष्म-काल में वह उन्हें प्यास से और ठण्ड के महीनों में रात में पड़ने वाली ओस में नष्ट हो जाने से बचा सके। याकूब मुख्य चरवाहा था, उसके नीचे काम करने वाले दास उपचरवाहे थे। यदि कोई भेड़ खोती थी तो उसकी भरपाई मुख्य चरवाहे को करनी पड़ती थी, और यदि भेड़-बकरियाँ तन्दुरूस्त अवस्था में न पाईं जाती थी तो उसका लेखा-जोखा वह कठोरता से उपचरवाहों से लेता था जिन्हें उनकी देख-रेख का दायित्व सौंपा था।PPHin 186.2

    चरवाहे के देखभाल करने वाले और कर्मठ जीवन और उसके प्रभार को सौंपे गए असहाय प्राणियों के प्रति विनम्र करूणा को, सुसमाचार के सबसे अधिक अनमोल सत्यों को, उद्धारण सहित समझाने के लिये, प्रेरित लेखकों के द्वारा प्रयोग में लाया गया है। अपने लोगों के साथ उसके सम्बन्ध के संदर्भ में मसीह की तुलना चरवाहे से की गयी है। पतन के पश्चात उसने अपनी भेड़ों का पाप के अच्धेरे मार्गों में सर्वनाश को प्राप्त होना देखा। इन भटके हुओं को बचाने हेतु उसने अपने पिता के घर के गौरव और वैभव को छोड़ा । वह कहता है, “मैं खोई हुई को ढूंढूंगा, और निकाली हुई को लौटा लाऊंगा।” “मैं अपनी भेड़-बकरियों को छुड़ाऊंगा और वे फिर न लुटेंगी।” “फिर जाति-जाति से लूटी न जाएंगी” यहेजकेल 34,16,22,28 [उसकी आवाज उन्हें उसके बाड़े में लौट आने को पुकारती है, “दिन को धूप से बचने के लिये छाया और आंधी-“”पानी और झड़ी में एक शरण और आड़” (यशायाह 4:6)भेड़-बकरियों के लिये उसकी देखभाल अथक है। वह निर्बल को प्रबल करता है, कष्ट का निवारण करता है, भेड़ो को अपनी बाहोंमें लेता है, और अपनी गोद में उठाता है। उसकी भेड़े उससे प्रेम करती है। “वे पराये के पीछे नहीं जाएंगी, परन्तु उससे भागेंगी, क्‍योंकि वे पराये का शब्द नहीं पहचानती ।” यहुन्ना 10:5 PPHin 186.3

    मसीह कहता है, “अच्छा चरवाहा भेड़ो के लिये अपना प्राण देता है। मजदूर जो न चरवाहा है और न भेड़ो का मालिक है, भेड़ियों को आते देख भेड़ो को छोड़कर भाग जाता है, और भेड़िया उन्हें पकड़ता और तितर-बितर कर देता है। वह इसलिये भाग जाता है कि वह मजदूर है और उसे भेड़ो की चिन्ता नहीं । अच्छा चरवाहा मैं हूँ, मैं अपनी भेड़ो को जानता हूँ और मेरी भेड़ मुझे जानती है। PPHin 187.1

    मुख्य चरवाहे, मसीह ने अपनी भेड़ो का प्रभार अपने धर्म-उपदेशकों को उपचरवाहों के तौर पर सौंपा है, और वह उन्हें आज्ञा देता है कि वे उनमें वही रूचि रखे जैसी कि उसने रखी हे, उसके द्वारा सौंपे गये प्रभार के पवित्र उत्तरदायित्व का आभास करे। उनसे उन्हें कर्तव्यनिष्ठ होने की, भेड़ो का भरण-पोषण करने की, निर्बल को प्रबल करने की, मूछित होते हुओ को सचेत करने की और उन्हें भूखे भेड़ियों से बचा कर रखने की औपचारिक आज्ञा दी है। PPHin 187.2

    अपनी भेड़ो को बचाने के लिये, मसीह ने अपना प्राण न्‍यौछावर कर दिया, और वह अपने चरवाहो को उदाहरण के तौर पर इस तरह प्रकट किये हुए प्रेम की ओर संकेत करता है। लेकिन “जो मजदूर है......जिसकी स्वयं की भेड़े नहीं है, भेड़ो में वास्तविक रूचि नहीं होती। वह केवल लाभ के लिये श्रम करता है और केवल अपने लिये सोचता है। वह अपने प्रभार के स्थान पर केवल अपने लाभ पर ध्यान लगाता है और संकट की घड़ी में वह भेड़ो को छोड़कर भाग जाता है। PPHin 187.3

    प्रेरित पौलुस उपचरवाहों को समझाता है, “परमेश्वर के उस झुण्ड की, जो तुम्हारे बीच में है, रखवाली करो, और यह दबाव से नहीं वरन्‌ परमेश्वर की इच्छानुसार आनन्द से, और नीच कमाई के लिये नहीं, पर मन लगाकर, जो लोग तुम्हें सौंपे गए है, उन पर अधिकार न जताओं, वरन्‌ झुण्ड के लिये आर्दश बनो । 1 पतरस 5:2,3 । पौलुस कहता है, “इसलिये अपनी और पूरे झुण्ड की चौकसी करो जिसमें पवित्र आत्मा ने तुम्हें अध्यक्ष ठहराया है कि तुम परमेश्वर की कलीसिया की रखवाली करो, जिसे उसने अपने लहू से मोल लिया है। मैं जानता हूँ कि मेरे जाने के बाद फाड़ने वाले भेड़िए तुम में आएंगे जो झुण्ड को न छोड़ेगें।” प्रेरितों के काम 20:28, 29 PPHin 188.1

    जो भी कर्तव्यनिष्ठ चरवाहे के गल्ले में आए दायित्व और देख-रेख को अवांछनीय कार्य समझता है, उन्हें प्रेरित झिड़कता है, “दबाव से नहीं, वरन्‌ स्वेच्छा से, नीच कमाई के लिये नहीं, वरन्‌ मन लगाकर” 1 पतरस 5:2 ऐसे अनिष्ठ दासों को मुख्य चरवाहा बिना हिचकिचाए सेवानिवृत कर देगा। मसीह की कलीसिया को लहूँ देकर खरीदा गया है, और चरवाहे को यह ज्ञात होना चाहिये कि उसकी देख-रेख में दी गई भेड़ो का मोल अनंत त्याग है। उसे हरेक भेड़ को अनमोल मानना चाहिये और उन्हें स्वस्थ और समृद्ध अवस्था में रखने के प्रयत्नों से थकना नहीं चाहिये। जो चरवाहा मसीह के आत्मा से व्याप्त है वो उसके आत्म-त्याग के उदाहरण को अपनाएगा और अपने प्रभार के कल्याण के लिये लगातार श्रम करेगा, और उसकी देख-रेख में भेड़े उन्‍नति करेंगी । PPHin 188.2

    सभी को अपनी सेवकाई का पक्का विवरण देने के लिये बुलाया जाएगा। स्वामी हर चरवाहे से पूछेगा, “वह सुन्दर झुण्ड जो तुझे सौंपा गया था, कहाँ है?” यिर्मयाह 13:20 ।जो निष्ठावान पाया जाएगा, वह प्रतिफल प्राप्त करेगा। “जब प्रधान रखवाला प्रगट होगा” प्रेरित कहता है, “तब तुम्हें महिमा का मुकुट दिया जाएगा जो मुरझाने का नहीं । 1 पतरस 5:4PPHin 188.3

    जब याकूब ने, लाबान की सेवा से थककर, कनान लौटने का प्रस्ताव रखा, उसने अपने सुसर से कहा, “”मुझे विदा कर कि मैं अपने देश और स्थान को जाऊँ। मेरी स्त्रियाँ और मेरे बच्चे, जिनके लिये मैंने तेरी सेवा की है, उन्हें मुझे दे कि मैं चला जाऊं, तू तो जानता है कि मैंने तेरी कैसे सेवा की है।” लेकिन लाबान ने यह कहकर उससे रूकने का आग्रह किया, ‘मैने अनुभव से जान लिया है कि यहोवा ने तेरे कारण से मुझे आशीष दी है।” उसने देखा कि उसके दामाद की देख-रेख में उसकी सम्पत्ति में बढ़ोतरी हो रही थी।PPHin 188.4

    याकूब ने कहा, “मेरे आने से पहले तुम्हारे पास थोड़ी सी थी। अब तुम्हारे पास बहुत अधिक है। लेकिन समय बीतने के साथ, याकूब की समृद्धि के प्रति ईर्ष्यालु हो गया, क्‍योंकि याकूब “बहुत धनवान हो गया”, उसके पास बहुत मवेशी बहुत से नौकर, ऊंट और गधे थे।” लाबान के पुत्र भी अपने पिता समान ईर्ष्यालु थे और उनकी द्वेषपूर्ण बातें याकूब के कानों में पड़ी, पिता “याकूब ने हमारे पिता का सब कुछ छीन लिया है, और हमारे पिता के धन के कारण उसकी यह प्रतिष्ठा है और याकूब ने लाबान के मुख पर दृष्टि की और ताड़ लिया कि उसके प्रति पहले के समान नहीं हैं।”PPHin 189.1

    याकूब को यदि ऐसाव से टकराव का भय न होता तो वह अपने चालाक सम्बन्धी को बहुत पहले छोड़ चुका होता। अब उसे लाबान के पुत्रों से खतरे का आभास होने लगा, जो उसकी धन-सम्पत्ति को अपना समझने लगे थे और उसे पाने के लिये वे हिंसक हो सकते थे। वह अत्यन्त कष्ट और उलझन में था, क्योंकि वह नहीं जानता था कि किधर जाए। लेकिन बैथेल की अनुग्रही प्रतीज्ञा का ध्यान कर वह इस विषय को परमेश्वर के पास ले गया और उससे मार्गदर्शन की प्रार्थना की। स्वप्न में उसे उसकी प्रार्थना का उत्तर मिला, “अपने पितरों के देश और अपनी जन्मभूमि को लौट जा, और मैं तेरे संग रहूंगा।’ PPHin 189.2

    लाबान की अनुपस्थिति ने निकासी का अवसर प्रदान किया। भेड़-बकरियों और मवेशियों को जल्द से एकत्रित किया गया और आगे भेज दिया गया, और अपनी पत्नियों बच्चों और दासों सहित याकूब ने फरात नदी को पार कर, कनान की सीमा पर गिलाद देश की ओर रूख किया। तीन दिन पश्चात लाबान को उनके भागने का समाचार मिला और उसने सात दिन तक उसका पीछा किया और गिलाद के पहाड़ी देश में उसे जा पकड़ा। वह अत्यन्त कोधित था और उन्हें लौटने को बाध्य करना चाहता था, ऐसा करवा पाने में उसे कोई सन्देह नहीं था क्योंकि उसकी टोली ज्यादा शक्तिशाली थी । पलायक गहरे संकट में थे । PPHin 189.3

    उसने अपनी शत्रुतापूर्ण योजना को क्रियान्वित नहीं किया, क्‍योंकि यथार्थ में अपने दास की सुरक्षा के लिये परमेश्वर ने स्वयं मध्यस्थता की। लाबान ने कहा, “तुम लोगों को हानि पहुँचाने की शक्ति मेरे हाथ में तो हैं, पर तुम्हारे पिता के परमेश्वर ने मुझसे बीती हुई रात में कहा, सावधान रह, याकूब को न तो तू भला कहना और न बुरा” जिसका तात्पर्य है कि ना तो उसे याकूब को लौटने के लिये बाध्य करना था और न ही मनभावने प्रलोभनों द्वारा आग्रह करना था ।PPHin 189.4

    लाबान ने अपनी पुत्रियों के दहेज को हड़प लिया था और याकूब के साथ चातुर्य और कठोरता से व्यवहार किया था, लेकिन अब विशेष रूप से भावनाओं को छुपाते हुए उसने याकूब को चुपके से भाग आने के लिये उलहाना दी कि ऐसा करने से उसने पिता को विदाई-उत्सव का या अपनी पुत्रियों और उनकी संतानों को विदा करने का अवसर नहीं दिया। PPHin 190.1

    प्रत्युत्तर में याकूब ने लाबान की स्वार्थी व लालची युक्ति को सामने रखा और उसे स्वयं की निष्ठा और नेकनीयती का साक्षी मानते हुए विनती की, “मेरे पिता का परमेश्वर, अर्थात अब्राहम का परमेश्वर, जिसका भय इसहाक भी मानता है, यदि मेरी ओर न होता तो निश्चय तू मुझे खाली हाथ जाने देता मेरे दुःख और मेरे हाथों के परिश्रम को देखकर परमेश्वर ने बीतीरात तुझे डॉटा । PPHin 190.2

    लाबान इन तथ्यों को झुठला न सका और अब उसने शान्ति की वाचा बांधने का प्रस्ताव रखा। याकूब ने प्रस्ताव को स्वीकार किया और सन्धि के प्रतीक के रूप में पत्थरों को लेकर एक ढेर खड़ा किया। लाबान ने इस खम्भे का नाम ‘मिज़पाह’ यज्ञ सहादूधा रखा औरकहा, ““यहढेर आज से मेरे ओर तेरे बीच साक्षी होगा जब हम एक दूसरे से दूर रहेंगे। PPHin 190.3

    “और लाबान ने याकूब से कहा, “इस ढेर को देख और इस खम्भे को भी देख जिनको मैंने अपने और तेरे बीच में खड़ा किया है। यह ढेर और यह खम्भा दोनो इस बात के साक्षी रहें कि हानि करने के विचार से ना तो मैं इस ढेर को पार कर तेरे पास जाऊंगा, न तू इस ढेर और खम्भे को पार करके मेरे पास आएगा। अब्राहम और नाहोर और उनके पिता, तीनों का जो परमेश्वर है, वही हम दोनों के बीच न्याय करें, तब याकूब ने इसहाक के ‘भय’ के नाम से शपथ ली। रात मैत्रीपूर्ण बात-चीत में बिताई गई, और भोर को लाबान अपने जन समूह के साथ लौट गया। इस अलगाव के साथ मेसोपोतामिया के निवासियों और अब्राहम की सन्तानों के बीच सम्बन्ध का नाम और निशान मिट गया।PPHin 190.4

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