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कुलपिता और भविष्यवक्ता - Contents
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    अध्याय 61—शाऊल का बहिष्कृत होना

    यह अध्याय 1 शमूएल 45 पर आधारित है

    गिलगाल की विकट परिस्थिति में विश्वास की परख में खरा उतरने में शाऊल असफल रहा था, और उसने परमेश्वर के सम्बद्ध धर्म-किया का अपमान किया था, लेकिन उसकी गलतियाँ अभी सुधार्य थी, और परमेश्वर ने उसे उसकी आज्ञाओं के पालन और उसके वचनमें निर्विवाद विश्वास का सबक सीखने के लिये दूसरा अवसर प्रदान किया।PPHin 655.1

    गिलगाल में भविष्यद्वक्ता द्वारा फटकारे जाने के समय, शाऊल को अपने द्वारा अपनाई गई कार्य प्रणाली में कोई पाप दिखाई नहीं दिया। उसे लगाकि उसके प्रति किया गया व्यवहार अन्यायपूर्ण था, और उसने अपनी गलती के लिये बहाने बनाए और अपने क॒त्यों का दोष सिद्ध करने का प्रयत्न किया। उस समय से वह भविष्यद्वक्ता के साथ कम संपर्क करता था। शमृूएल शाऊल को अपनी निज पुत्र समान प्रेम करता था, जबकि निभीक और कुद्ध स्वभाव के शाऊल ने भविष्यद्वक्ता को अधिक सम्मान दिया था, लेकिन वह शमूएल की ताड़ना से अप्रसन्‍न था और इस कारण, जहाँ तक सम्भव था, उसका सामना नहीं करता था।PPHin 655.2

    लेकिन प्रभु ने अपने दास को एक अन्य सन्देश के साथ शाऊल के पास भेजा। आज्ञा पालन के द्वारा वह अभी भी परमेश्वर के प्रति अपनी स्वाभिभक्ति और इज़राइल का नेतृत्व करने की योग्यता को प्रमाणित कर सकता था। शाऊल को आज्ञा पर ध्यान देने की आवश्यकता का आभास कराने के लिये, शमूएल ने स्पष्टता से बताया कि जिस अधिकार से उसने शाऊल को सिंहासन पर बैठने के लिये बुलाया था, उसी ईश्वरीय निर्देश से वह अभी बोल रहा था। भविष्यद्वक्ता ने कहा, “मुझे स्मरण है कि अमालेकियों ने इज़राइलियों से कया किया, जब इज़राइली मिस्र से आ रहे थे, तब उन्होंने मार्ग में उनका सामना किया। इसलिये अब तू जाकर अमालेकियों को मार, और जो कुछ उनका है उसे पूरी तरह नष्ट कर दे और उन्हें छोड़ना मत, पुरूष और स्त्री, शिशु या दूघ पीता बच्चा, बैल और भेड़, ऊंट और गधा, सब को मार डाल।” बीहड़ में इज़राइल पर सर्वप्रथम चढ़ाई कराने वाले अमालेकी थे; और इस पाप के लिये, और इसके साथ उनकी नीचतापूर्ण मूर्तिपूजा और परमेश्वर को उनकी चुनौती के लिये परमेश्वर ने मूसा के द्वारा उन्हें दण्डादेश दिया। ईश्वर के निर्देशन में इज़राइल के प्रति उनकी निर्दयता के इतिहास का उल्लेख किया गया था और उन्हे आज्ञा दी गई, “तू अमालेक का नाम धरती पर से मिटा डालना और तुम इस बात को न भूलना ।”-व्यवस्थाविवरण 25:19 । चार सौ वर्षो तक इस दण्डोश का निष्पादन विलम्बित किया गया था, लेकिन अमालेकी अपने पापों से नहीं फिरे। परमेश्वर जानता था कि सम्भव होने पर, ये दुष्ट लोग पृथ्वी पर से उसके लोगों और उसकी आराधना को पूरी तरह मिटा देंगे। अब इतने दिनों से आस्थगित, उस दण्डादेश के निष्पादन का समय आ गया था।PPHin 655.3

    दुष्टों के प्रति परमेश्वर की चिरसहिष्णुता के अभ्यास ने, आज्ञा उल्लंघन करने वालों को निभीक बनाया, लेकिन उनका दण्ड आस्थगित किये जाने के कारण और भी निश्चित और भयानक होगा। यगायाह 28:21में लिखा है, “यहोवा ऐसे उठ खड़ा होगा जैसा वह पराजीम नामक पर्वत पर खड़ा हुआ और जैसा गिबोन की तराई में उसने कोध दिखाया था, वह अब फिर कोध दिखाएगा जिससे वह अपना काम करे, अपना अद्भुत कार्य और वह कार्य करे जो अनोखा है।” हमारे दयावान परमेश्वर के लिये दण्ड का कार्य एक अदभुत कार्य है। यहेजकेल 33:11में लिखा है, “परमेश्वर यहोवा की यह वाणी है मेरे जीवन की सौगन्ध, मैं दुष्ट के मरने से कुछ भी प्रसन्‍न नहीं होता, परन्तु इससे कि दुष्ट अपने मार्ग से फिरकर जीवित रहे ।” निर्गमन 34:6,7में लिखा है, “यहोवा दयालु और अनुग्रहकारी, कोप करने में धीरजवन्त, और अति करूणामय और सत्य से परिपूर्ण , अधर्म और अपराध और पाप का क्षमा करने वाला।” “परन्तु दोषी को वह किसी प्रकार निर्दोष न ठहराएगा।” वह प्रतिशोध में आनन्दित नहीं होता, लेकिन वह अपनी व्यवस्था के उल्लंघन करने वालों पर दण्डादेश अवश्य भेजेगा । पृथ्वीवासियों को अधर्म और विनाश से सुरक्षित रखने के लिये, ऐसा करने के लिये वह बाध्य हो जाता है। कुछ को बचाने के लिये, उसे उसको काट डालना होगा जो पाप के कारण कठोर हो गए है। नद्दूम 1:3में लिखा है, “यहोवा विलम्ब से कोध करने वाला और बड़ा शक्तिमान है, वह दोषी को किसी प्रकार निर्दोष नहीं ठहराएगा।” धार्मिकता में किये गए श्रद्धायुक्त भयउत्पन्न करने वालेकार्यों से वह अपनी कचली हुईं व्यवस्था के अधिकार को न्यायसंगत सिद्ध करेगा। न्याय के निष्पादन में उसकी हिचकिचाहट पापों की जघन्यता की और उल्लंघन करने वाले को मिलने वाले प्रतिफल की कठोरता को प्रमाणित करती है। PPHin 656.1

    लेकिन दण्डादेश देते समय, परमेश्वर ने दया का स्मरण रखा। अमालेकियों को नष्ट होना था, लेकिन उनके बीच रहने वाले केनियों को छोड़ दिया गया। यह लोग मूर्तिपूजा से अछते तो नहीं थे, लेकिन परमेश्वर के भक्त और इज़राइल के मित्र थे। इसी जनजाति से मूसा का साला होबाब था, जो बीहड़ में इज़राइलियों की यात्रा में उनके साथ था और देश के बारे में उसकी जानकारी से महत्वपूर्ण सहायता मिली थी। PPHin 657.1

    मिकमाश में पलिश्तियों की पराजय के समय से शाऊल ने मोआब, अम्मोन, एदोम, अमालेकियों और पलिश्तीयों से युद्ध किया था, और जिधर भी उसने हाथ डाला, विजय उसी की हुई । अमालेकियों के विरूद्ध आज्ञा प्राप्त करने पर उसने अविलम्ब युद्ध की घोषणा कर दी। उसके निज अधिकार के साथ भविष्यद्वक्ता का अधिकार भी संलग्न था और युद्ध के आह्वान पर इज़राइली पुरूष उसके मोरचे पर एकत्रित हो गए। इस अभियान में अपनी शक्ति अथवा पदवी बढ़ाने के उद्देश्य से भाग नहीं लेना था, इज़राइलियों को ना तो विजय का सम्मान और न ही उनके शत्रुओं के विजयोपहारों को प्राप्त करना था। उन्हें युद्ध में हिस्सा केवल परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता के कृत्य के तौर पर लेना था जिसका उद्देश्य अमालेकियों पर उसकी दण्डाज्ञा का निष्पादन करना था। परमेश्वर चाहता था कि सभी राष्ट्र उन लोगों के विनाश को देखे जिन्होंने उसकी सार्वभौमिकता को ललकारा था और यह भी देखे कि उनका विनाश उन्हीं लोगों के द्वारा हुआ जिनकी प्रति उन्होंने घृणा की थी। PPHin 657.2

    “तब शाऊल ने हवीला से लकर शूरतक जो मिम्र के पूर्व में है अमोलेकियों को मारा और उनके राजा अगाग को जीवित पकड़ा और उसकी सारी प्रजा को तलवार से नष्ट कर डाला। परन्तु अगाग पर, और अच्छी से अच्छी भेड़-बकरियों, गाय, बेला, मोटे पशुओं और मेमनो, और जो कुछ अच्छा था, उन पर शाऊल और उसकी प्रजा ने कृपा की, और उन्हें पूरी तरह नष्ट नहीं किया, परन्तु जो कुछ तुच्छ और कड़ा-करकट था, उसे उन्होंने पूरी तरह नष्ट कर दिया। PPHin 657.3

    अमालेकियों पर शाऊलकी यह विजय शाऊल की सभी विजयों में विलक्षण थी, और इसने शाऊल के हृदय के घमण्ड को दोबारा जागृत कर दिया, जो उसके लिये सबसे बड़ा खतरा था। परमेश्वर के शत्रुओं के सर्व सत्यानाश की पवित्र आज्ञा को आंशिक रूप से ही पूरा किया गया था। राजसी युद्धबन्धी की उपस्थिति के द्वारा अपनी विजय सम्बन्धी वापसी के गौरव को ऊँचा करने को महत्वाकांक्षी, शाऊल ने पड़ोसी राष्ट्रों की प्रथाओं का अनुकरण करने का जोखिम उठाया और अमालेकियों के कर और रणकुशल राजा आगाग को मृत्यु के घाट नहीं उतारा। लोगों ने अपने लिये अच्छे से अच्छे भेड़-बकरियों, मवेशी और भारवाहक पशु, यह कहकर कि उन्हें परमेश्वर के लिये बलि की भेंट के रूप में चढ़ाना है, सुरक्षित कर लिये और इस आधार पर अपने पाप को क्षमा योग्य ठहराया। लेकिन, वास्तव में उनका प्रयोजन इन पशुओं को बलि के लिये अपने पशुओं के बदले में प्रयोग करना था, ताकि उनके पशु बचे रहें।PPHin 657.4

    शाऊल की निर्णायक परख का समय आ गया। परमेश्वर की इच्छा के प्रति उसके हठीले निरादर ने, निरंकश सम्राट के जैसे शासन करने के उसके संकल्प को दिखाते हुए, प्रमाणित कर दिया कि परमेश्वर के प्रतिनिधि के तौर पर उसमें राजसी सत्ता निहित नहीं की जा सकती थी। जब शाऊल और उसकी सेना विजय के उत्साह में घर लौट रहे थे, भविष्यद्बक्ता शमूएल का घर शोकाकुल था। उसे प्रभु द्वारा, राजा की कार्य-प्रणाली की निंदा करते हुए एक संदेश मिला था, “में शाऊल को राजा बनाकर पछताता हूँ, क्‍योंकि उसने मेरे पीछे चलना छोड़ दिया, और मेरी आज्ञाओं का पालन नहीं किया।” भविष्यद्वक्ता उपद्रवी राजा के तौर-तरीकों से अत्यन्त खिन्‍न था, उसने रो-रो कर रात भर प्राथना की कि वह भयानक दण्डाज्ञा वापस ले ली जाए। PPHin 658.1

    परमेश्वर का प्रायश्चित मनुष्य के प्रायश्चित जैसा नहीं है। “इज़राइल का बलमूल न तो झूठ बोलता है और न पछताता है, क्‍योंकि वह मनुष्य नहीं है कि पछताए।” मनुष्य के प्रायश्चित का तात्पर्य मनपरिवर्तन से है। परमेश्वर के प्रायश्चितका तात्पर्य सम्बन्ध और परिस्थितियों में परिवर्तन से है। उन शर्तों की सहमति के आधार पर, जिसके द्वारा मनुष्य पर ईश्वर की कृपा-दृष्टि हो सकती है, मनुष्य परमेश्वर के साथ अपना सम्बन्ध बदल सकता है या अपने ही कार्यों द्वारा वह उसकी कृपा-दृष्टि के दायरे से बाहर हो सकता है, लेकिन प्रभु “आज और युगानुयुग एक सा है।” (इब्रियों 13:3)। शाऊल की अनाज्ञाकारिता ने परमेश्वर के साथ उसके सम्बन्ध को बदल दिया, लेकिन परमेश्वर के साथ स्वीकृति की शर्तें अपरिवर्तनशील है- परमेश्वर के नियम वहीं है, क्योंकि जिसमें न तो कोई परिवर्तन हो सकता है, और न अदल-बदल के कारण उस पर छाया पड़ती है।”-याकूब 1:17।PPHin 658.2

    दुखी हृदय के साथ दूसरे दिन प्रात:काल ही शमूएल दोषी राजा से मिलने गया। शमूएल को आशा थी कि गहन चिंतन करने पर शाऊल को अपने पाप का आभास होगा, और वह समर्पण और प्रायश्चित के द्वारा परमेश्वर की कृपा-दृष्टि पुनः प्राप्त कर सकेगा। लेकिन जब आज्ञा उललघंन या पाप के मार्ग पर पहला कदम रखा जाता है, तो रास्ता आसान हो जाता है। शाऊल, जो अवज्ञा करने से गिर चुका था, होंठो पर झूठ लिये शमूएल के पास पहुँचा। उसने कहा, “तुझे यहोवा की ओर से आशीष मिले मैंने यहोवा की आज्ञा पूरी की है।”PPHin 659.1

    भविष्यवक्ता के कानों तक पहुँचने वाले स्वर ने अनाज्ञाकारी राजा के कथन को अस्वीकार्य ठहराया। उसने आलोचना भरा प्रश्न किया “फिर भेड़-बकरियों का यह मिमियाना, और गाय-बैलों का यह रम्भाना जो मुझे सुनाई देता है, यह क्‍यों हो रहा है?” शाऊल ने उत्तर दिया, “वे तो अमालेकियों के यहाँ से आए है अर्थात प्रजा के लोगों ने अच्छी से अच्छी भेड़-बकरियों और गाय-बैलों के तेरे परमेश्वर यहोवा के लिये बलि करने को छोड़ दिया है, और बाकी सब का तो हमने सत्यनाश कर दिया है।” लोगों ने शाऊल के निर्देशों का पालन किया था, लेकिन स्वयं को बचाने के लिये वह अपनी अनाज्ञाकारिता के पाप के लिये उन्हे दोषी ठहराने को तैयार था। PPHin 659.2

    शाऊल के बहिष्करण के सन्देश ने शमूएल के हृदय को अकथनीय दुःख पहुँचाया। यह सन्देश इज़राइल की समस्त सेना के सम्मुख दिया जाना था, जब वे विजय सम्बन्धी उल्लास और गर्व से भरे हुए थे उस विजय के अवसर पर, जिसका श्रेय अपने राजा के रणकोशल साहस को दिया, क्योंकि इस संघर्ष में शाऊल ने इज़राइल की सफलता के साथ परमेश्वर को सम्बद्ध नहीं किया था, लेकिन जब भविष्यद्बक्ता ने शाऊल के उपद्रव के प्रमाण देखे, उसका कोध भड़क उठा, यह जानकर कि जिस पर परमेश्वर की इतनी कृपा-दृष्टि थी, उसी ने स्वर्ग की आज्ञा का उल्लंघन किया और इज़राइल को पाप में ले गया। शमूएल राजा के बहानों के धोखे में नहीं आया। कोध और दुख के साथ उसने घोषणा की, “ठहर जा, और जो बात यहोवा ने आज रात मुझ से कही है वह मैं तुझ को बताता हूँ.......जब तू अपनी दृष्टि में छोटा था, तब क्या तू इज़राइली गोत्रों का प्रधान न हो गया? और क्या यहोवा ने इज़राइल पर राज्य करने को तेरा अभिषेक नहीं किया? उसने अमालेक से सम्बन्धित परमेश्वर की आज्ञा को दोहराया, और राजा की अनाज्ञाकरिता का कारण पूछा। PPHin 659.3

    शाऊल स्वयं को न्यायसंगत ठहराने में लगा रहा, “निःसन्देह मैं यहोवा की बात मानकर जिधर यहोवा ने मुझे भेजा उधर गया, और अमालेकियों के राजा को ले आया हूँ. और अमालेकियों का सत्यनाश किया है, परन्तु प्रजा के लोग लूट में से भेड़-बकरियों और गाय-बैलों, अर्थात वे प्रमुचा चीजे जिन्हें पूर्णतया नष्ट किया जाना था, गिलगाल में तेरे परमेश्वर के लिये बलि चढ़ाने को ले आए है।”PPHin 660.1

    कठोर और गम्भीर शब्दों के प्रवाह में भविष्यद्वकता झूठ के शरणस्थान को बहा ले गया और उसने अखण्डनीय दण्डादेश की घोषणा की, “क्या यहोवा होमबलियों और मेलबलियों से उतना प्रसन्‍न होता है, जितना कि अपनी बात के माने जाने से प्रसन्‍न होता है? सुन, आज्ञा मानना तो बलि करना और कान लगाना मेढ़ो की चरबी से उत्तम है। देख बलवा करना और अभिचार एक जैसे पाप है, और हठ करना मूर्तियों और गृहदेवताओं की पूजा के तुल्य है। तूने जो यहोवा की बात को तुच्छ जाना इसलिये उसने तुझे राजा होने के लिये तुच्छ जाना है।” PPHin 660.2

    जब शाऊल ने यह भयवाह दण्डादेश सुना उसने कहा, “मैंने पाप किया है, मैंने तो अपनी प्रजा के लोगों का भय मानकर और उनकी बात सुनकर यहोवा की आज्ञा और तेरी बातों का उल्लंघन किया है।” भविष्यद्वक्ता द्वारा की गईं निंदा से भयभीत होकर, शाऊलने अपने दोष को स्वीकार किया, जिसे उसने पहले हठ में माननेसे मना कर दिया था, लेकिन वह लोगों पर आरोप लगाता रहा कि उसने यह पाप उनके डर से किया था। PPHin 660.3

    वह पाप के लिये दुख नहीं था, वरन्‌ पाप के दण्ड का भय था, जिसके कारण इज़राइल के राजा ने शमूएल ने विनती की, “अब मेरे पाप को क्षमा कर, और मेरे साथ लौट आ कि मैं यहोवा को दण्डवत करू ।” यदि शाऊलका पश्चताप वास्तविक होता, तो उसने अपने पाप का सार्वजनिक तौर पर अंगीकार किया होता, परन्तु अपने अधिकार को कायम रखना और लोगों की उसके प्रति स्वामिभक्ति को बनाए रखना उनकी चिन्ता के मुख्य विषय थे। वह राज्य के साथ अपने प्रभाव को प्रबल करने के लिये वह शमूएल की उपस्थिति के सम्मान का अभिलाषी था। PPHin 660.4

    भविष्यद्वक्ता ने उत्तर दिया, “मैं तेरे साथ न लौदूँगा क्‍योंकि तूने यहोवा की बात को तुच्छ जाना है और यहोवा न तुझे इज़राइल का राजा होने के लिये तुच्छ जाना है। ” जब शमूएल जाने के लिये घूमा, तो भय की पीड़ा में, शाऊल ने उसके आवरण के छोरको पकड़ा कि वह उसे रोक सके, लेकिन वह उसके हाथों में फट गया। इस पर भविष्यद्बक्ता ने घोषणा की, “आज यहोवा ने इज़राइल के राज्य को फाड़कर तुझ से छीन लिया, और तेरे एक पड़ोसी को जो तुझ से अच्छा है दे दिया है।” PPHin 660.5

    परमेश्वर की अप्रसन्‍नता से अधिक शाऊल शमूएल के उसके प्रति विमुख होने से व्याकल था। वह जानता था कि लोग उससे अधिक भविष्यद्वक्ता में विश्वास रखते थे। यदि पवित्र आदेश के द्वारा किसी अन्य व्यक्ति को राजा नियुक्त किया गया, तो शाऊल के लिये अपने आधिपत्य को कायम रखना असम्भव था। शमूएल द्वारा पूर्णतया त्याग दिये जाने पर, उसे तात्कालिक विद्रोह का भय था। शाऊलने भविष्यद्बक्ता से विनती की कि एक धार्मिक विधि में सार्वजनिक तौर पर उसके साथ सम्मिलित होकर वह लोगों और पुरनियों के सम्मुख उसका सम्मान करे। ईश्वरीय निर्देश के द्वारा शमूएलने राजा के निवेदन के आगे समर्पण कर दिया जिससे कि विद्रोह का कोई अवसर ना दिया जाए। लेकिन धर्म-किया में वह केवल एक मूक दर्शक बना रहा।PPHin 661.1

    एक कठोर और भंयकर न्यायसंबंधी कार्य का संपादन अभी होना था। शमूएल को सार्वजनिक तौर पर परमेश्वर के सम्मान की पुष्टि करनी थी और शाऊल की कार्य प्रणाली का तिरस्कार करना था। उसने अमालेकियों के राजा के उसके सम्मुख लाए जाने की आज्ञा दी। इज़राइल की तलवार से घात किये हुओं से सर्वश्रेष्ठ, आगाग सबसे अधिक दोषी और निर्दयी था, वह जिसने परमेश्वर के लोगो से घृणा की थी और उनका विनाश करना चाहा था, और जिसके प्रभाव से मूर्तिपूजा को सबसे अध्कि बढ़ावा मिला था। स्वयं को सन्तुष्ट करते हुए कि मृत्यु का खतरा टल गया था, वह भविष्यद्वक्ता के आदेश पर आया। शमूएल ने घोषणा की, “जैसे स्त्रियाँ तेरी तलवार से निर्वश हुई है, वैसे ही तेरी माता भी स्त्रियों में निर्वेश होगी। तब शमूएल ने अगाग को गिलगाल में यहोवा के सामने टुकड़े-टुकड़े किया।” इसके बाद शमूएल रामा में अपने घर लोट गया और शाऊल गिबा में अपने घर लौट गया। इसके बाद भष्थिद्दकता और राजा केवल एक बार मिले। PPHin 661.2

    सिंहासन ग्रहण करने के लिये बुलाए जाने के समय, शाऊल के अपनी निज क्षमताओं के बारे में अभिमानरहित अनुमान था और निर्देशित किये जाने के लिये सहमत था। उसमें ज्ञान और अनुभव का अभाव था और उसके चरित्र में कई गम्भीर त्रुटियाँ थी। लेकिन प्रभु ने उसे मार्गदर्शक और सहायक के रूप में पवित्र आत्मा प्रदान किया, और उसे ऐसे पद पर आसीन किया जहाँ वह इज़राइल के शासक के लिये अपेक्षित गुणों को विकसित कर सकता था। यदि वह ईश्वरीय ज्ञान व बुद्धिमत्ता द्वारा विनती करते हुए दीन रहा होता, तो उसे अपने ऊँचे पद के कर्त॑व्यों का सफलता व सम्मान के साथ निर्वाहकरने केलिये सुयोग्य किया जाता। परमेश्वर के अनुग्रह के प्रभाव में प्रत्येक सद्‌्गुण दृढ़ होता चला जाता और बुराई की प्रवृति घटती जाती। जो स्वयं को परमेश्वर के प्रति समर्पित करते है, उनके लिये परमेश्वर यही कार्य करता है। कई हैं जिन्हें उसने अपने कार्य में ऊँचे पदों पर बुलाया है क्‍योंकि वह उनमें दीन व सिखाने योग्य भावना है। अपनी सूझ-बूझ में वह उन्हें वहां नियुक्त करता जहाँ वे उससे सीख सकते हैं। वह उन्हें उनके चरित्र की त्रुटियाँ दिखाता है और जो भी उसकी सहायता प्राप्त करने के लिये प्रार्थना करते हैं, वह उन्हें गलतियाँ सुधारने को सामर्थ्य प्रदान करता है।PPHin 661.3

    लेकिन शाऊल ने स्वयं के गौरवान्वित होने की परिकल्पना की और अपने अविश्वास और अवज्ञा के द्वारा परमेश्वर का अपमान किया। हालाँकि सिंहासन ग्रहण करने के समय वह दीन और आत्मा-अविश्वासी था, सफलता ने उसे आत्म-विश्वासी बना दिया। उसके राज की प्रथम विजय ने उसके हृदय के उस घमण्ड को सुलगाया जो उसके लिये सबसे बड़ा खतरा था। याबेश-गिलाद के छुटकारे में प्रकट किये गए रणकोशल और सहास ने पूरे राज्य को सम्मानित किया, और वे भूल गए कि वह केवल एक माध्यम था, जिसके द्वारा परमेश्वर ने कार्य किया था, और हालाँकि प्रारम्भ में शाऊल ने गौरव का श्रेय परमेश्वर को दिया, परन्तु बाद में उसने सारा आदर स्वयं के लिये ही ले लिया। पर परमेश्वर पर अपनी निर्भरता को भूल गया, और अपने हृदय में उससे अलग हो गया। इस प्रकार गिलगाल में परिकल्पना और पवित्र स्थान के अपमान के लिये रास्ता तैयार हो गया। इसी अन्धे आत्मविश्वास के कारण उसने शमूएल की भर्त्सना का तिरस्कार किया। शाऊल शमूएल को परमेश्वर द्वारा भेजा गया भविष्यद्वक्ता मानता था, इसलिये उसे उसकी फटकार को स्वीकार करना चाहिये था, हालाँकि वह स्वयं नहीं देखा पा रहा था कि उसने पाप किया है। यदि वह अपने पाप को देखने और उसका अंगीकार करने को तैयार होता, यह कटु अनुभव भविष्य के लिये बचाव प्रमाणित होता। PPHin 662.1

    यदि प्रभु ने उस समय शाऊल से स्वयं को पूर्णतया अलग कर लिया होता तो बीते समय की गलतियों को सुधारने हेतु एक विशेष कार्य के सम्पादन को उसके सुपुर्द करते हुए, उसने अपने भविष्यद्वक्ता के माध्यम से उससे बात न की होती । जब कोई परमेश्वर की संतान होने का दावा करने वाला उसकी इच्छा को पूरी नहीं करता और दूसरों को परमेश्वर की आज्ञाओं के प्रति बेपरवाह और श्रद्धाहीन होने के लिये प्रभावित करता है, उसके लिये फिर भी उसकी असफलताओं को विजय में बदलना सम्भव है, यदि वह निदां को पश्चताप के साथ ग्रहण करे, और विश्वास और दीनता के साथ प्रभु के पास लौट आए। पराजय का अपमान हमारे लिये आशीष प्रमाणित होता है क्योंकि वह हमे दिखाता है कि परमेश्वर की सहायता के अभाव में हम उसकी इच्छा को पूरी नहीं कर सकते। PPHin 663.1

    जब शाऊल ने परमेश्वर के पवित्र आत्मा द्वारा उसे भेजी गई फटकार से मुहँ फेर लिया और ढींठ होकर स्वयं को न्यायसंगत ठहराता रहा, तो उसने उस एकमात्र साधन को अस्वीकार किया जिसके द्वारा परमेश्वर उसे उसी से बचाने का कार्य कर सकता था। शाऊल ने स्वेच्छा से स्वयं को परमेश्वर से अलग किया था। वह ईश्वरीय मार्गदर्शन या सहायता तब तक प्राप्त नही कर सकता था जब तक की वह अपने पाप के अंगीकार द्वारा परमेश्वर के पास न लौटे।PPHin 663.2

    गिलगाल में, इज़राइल के सम्मुख खड़े होकर परमेश्वर के लिये बलि की भेंट चढ़ाते हुए शाऊल ने बड़ी कर्तव्यनिष्ठता का परिचय दिया। लेकिन उसकी धर्म-परायणता वास्तविक नहीं थी। ईश्वर की आज्ञा के प्रत्यक्ष विरोध में की गई एक धर्म किया ने केवल शाऊल के हाथों को कमजोर किया, और उस मदद से परे रखा जो ईश्वर उसे देने को तैयार था। PPHin 663.3

    अमालेक के विरूद्ध अपने अभियान में, शाऊल ने सोचा कि जिसके लिये प्रभु ने उसे आज्ञा दी थी, उसमें जो भी आवश्यक था, वह उसने किया, लेकिन प्रभु आंशिक आज्ञाकारिता से प्रसन्‍न नहीं था और ना उसको अनदेखा करने को तेयार था, जिसकी इतने सम्भाव्य उद्देश्य के द्वारा उपेक्षा की गई थी। परमेश्वर ने मनुष्य को उसके नियमों या अपेक्षाओ से दूर होने की तनिक भी स्वतन्त्रता नहीं दी । व्यवस्थाविवरण 12:8, 28में प्रभु इज़राइल से कहता है, “जो काम जिसको भाता है वही वे करते है, वैसा तुम न करो” वरन्‌ “इन बातों को जिनकी आज्ञा मैं तुम्हें सुनाता हूँ. चित्त लगाकर सुन।” किसी भी कार्य प्रणाली का निर्णय लेने से पहले हमें यह नहीं पूछना है कि क्या हम उसके परिणामस्वरूप क्षति को देख सकते है, वरन्‌ यह कि वह परमेश्वर की इच्छा के अनुकूल है या नहीं। नीतिवचन 14:12में लिखा है, “ऐसा मार्ग है जो मनुष्य को ठीक जान पढ़ता है, परन्तु उसके अन्त में मृत्यु ही मिलती है।’PPHin 663.4

    “आज्ञा मानना बलिदान करने से अच्छा है।” परमेश्वर की दृष्टि में बलिदान की भेंटो का अपने आप में कोई महत्व नहीं था। इनको भेंटकर्ता द्वारा मसीह में विश्वास और पाप के प्रायश्चित को अभिव्यक्त करने और परमेश्वर की व्यवस्था के प्रति भविष्य में आज्ञाकारिता की प्रतिज्ञा करने के लिये नियोजित किया गया था। पश्चताप, विश्वास और आज्ञाकारीह्दय के अभाव में यह भेंटे निरर्थक थी। जब परमेश्वर की आज्ञा के प्रत्यक्ष उल्लंघन में, शाऊल ने उसका बलिदान करने का प्रस्ताव रखा जिसे परमेश्वर ने विनाश को समर्पित किया था, तो यह ईश्वरीय सत्ता की स्पष्ट अवहेलना थी। वह धर्म-किया स्वर्ग का अपमान रही होगी। फिर भी, शाऊल के पाप और पाप के परिणाम हमारे सामने होते हुए भी हम में से कितने वैसी ही कार्य-प्रणाली का अनुकरण कर रहे है। वे परमेश्वर के किसी नियम को मानने और उस पर विश्वास करने की स्वीकृति नहीं देते, लेकिन वे परमेश्वर के लिये धर्म की औपचारिक विधियों का पालन करते रहते है। ऐसी धर्म किया को परमेश्वर का आत्मा स्वीकार नहीं करता। धार्मिक समारोह या पर्वों को मानने में मनुष्य चाहे कितना ही लौलीन हो, यदि वे परमेश्वर की एक आज्ञा का जानबूझकर खण्डन करते है, तो प्रभु उन्हें स्वीकार नहीं करता।PPHin 664.1

    “विद्रोह अभिचार के पाप जैसा है और हठीलापन अधर्म और मूर्तिपजा के समान है। विद्रोह शैतान के साथ उत्पन्न हुआ और परमेश्वर की प्रति सभी विद्रोह प्रत्यक्ष रूप से शैतानी प्रभाव के कारण होते है। जो स्वयं को परमेश्वर के शासन-प्रबन्ध के विरूद्ध व्यवस्थित करते है, वे मुख्य स्वधर्म त्यागी के साथ सन्धि करते है, और वह समझ को पथशभ्रष्ट करने और इन्द्रियों को मोहित करने के लिये अपनी शक्ति का अभ्यास करेगा। उसके प्रभाव से सभी कुछ कृत्रिम प्रकाश में प्रकट होगा। हमारे पूर्वजों की तरह, जो भी शैतान के सम्मोहक आकर्षण के प्रभाव में होते है वे केवल पाप के द्वारा मिलने वाले लाभको देखते हैं।PPHin 664.2

    शैतान की भ्रामक शक्ति का इससे ठोस प्रमाण नहीं दिया जा सकता कि उसके मार्गदर्शन में चलने वाले स्वयं को इस विश्वास से धोखा देते है कि वे परमेश्वर की सेवा-टहल कर रहे है। जब कोरह, दातान और अबिराम ने मूसा के अधिकार के विरूद्ध उपद्रव किया, तब उन्होंने सोचा कि वे उन्हीं के समान एक व्यक्ति, मात्र एक मानवीय अगुवे का विरोध कर रहे है, और वे विश्वास करने लगे कि वे यथार्थ में परमेश्वर का कार्य कर रहे हैं। लेकिन परमेश्वर के चुने हुए साधन का तिरस्कार करने में वे मसीह का तिरस्कार कर रहे थे, उन्होंने परमेश्वर के आत्मा को अपमानित किया था। इसी प्रकार, मसीह के दिनों में, यहूदी शास्त्री और पुरनियों ने जो परमेश्वर के सम्मान के लिये बहुत उत्साह दिखाते थे, उसके पुत्र को कूस पर चढ़ा दिया। वही भावना आज भी उनके हृदयों में विद्यमान है जो परमेश्वर की इच्छा के विरूद्ध अपनी इच्छा का अनुकरण करते है।PPHin 664.3

    शाऊल के पास शमूएल के परमेश्वर द्वारा प्रेरित होने का पर्याप्त प्रमाण था। भविष्यद्वक्ता के माध्यम से परमेश्वर के आदेश का निरादर करने का उसके द्वाराद्स्साहस करना सही निर्णय और विवेक बुद्धि के आदेश के विरूद्ध था। उसकी घातक परिकल्पना का श्रेय शैतानी जादूगरी को देना चाहिये। मूर्तिपूजा और अभिचार का दमन करने में शाऊल नेबहुत जोश दिखाया था, लेकिन फिर भी पवित्र आज्ञा के प्रति उसकी अनाज्ञाकारिता में वह परमेश्वर के प्रति विरोध की उसी भावना से प्रेरित हुआ था और यथार्थ में शैतान द्वारा ऐसे प्रेरित था जैसे जादू-टोने को अभ्यास करने वाले होते है, और जब उसकी निनन्‍दा की गई, उसने विद्रोह के साथ हठीलेपन को भी जोड़ दिया। यदि वह मूर्तिपूजकों के साथ निःसंकोच एक भी हो जाता तो परमेश्वर के आत्मा का इससे बड़ा अपमान नहीं कर सकता था। PPHin 665.1

    परमेश्वर के आत्मा या उसके वचन की चेतावनियों और फटकार की उपेक्षा करना खतरनाक कदम है। कई लोग शाऊल की तरह प्रलोभन का शिकार होकर पाप के वास्तविक स्वभाव के प्रति अंधे हो जाते हैं। वे स्वयं को सन्तुष्ट करते है कि उन्हें एक अच्छा लक्ष्य दिखाई दे रहा है, और उन्‍होंने परमेश्वर के नियमों से दूर जाकर कोई गलती नहीं की। इस प्रकार वे अनुग्रह के आत्मा का प्रतिरोध तब तक करते है, जब तक उसकी आवाज सुनाई देना बन्द न हो जाए और फिर वे उन्हीं के द्वारा चुने हुए भ्रम के अधीन हो जाते है।PPHin 665.2

    शाऊल के रूप में, परमेश्वर ने इज़राइल को उनका मनपसन्द राजा दिया था जैसा कि शमूएल ने गिलगाल ने शाऊल को राज्य देने के समय कहा, “अब उस राजा को देखो जिसे तुम ने चुन लिया, और जिसके लिये तुम ने प्रार्थना की थी (1 शमूएल 12:13)। देखने में सुदर्शन, कुलीन डील-डौल और राजसी आचरण का धनी- उसका रग-रूप राजसी गौरव उनकी धारणा से मेल खाता था, और उसका अपना साहस और सेना-संचालन में योग्यता वे विशेषताएं थी जिनके द्वारा, उनकी दृष्टि में, अन्य राष्ट्रों से आदर और सम्मान प्राप्त हो सकता था। उन्हें इस बात की कम ही चिंता थी कि उनके राजा के पास वे विशेष गुण होने चाहिये जो उसे निष्पक्षता और न्याय के साथ राज करने केयोग्य बनाए। उन्होंने ऐसे राजा के लिये प्रार्थना नहीं की जो चरित्र से कलीन हो, जो परमेश्वर से प्रेम करता हो और उसका भय मानता हो। उन्होंने परमेश्वर से यह सम्मति नहीं माँगी कि शासक के पास कौन सी विशेषताएं होनी चाहिये जिससे वह परमेश्वर के चुने हुए लोगों की तरह उनके विशिष्ट, पवित्र चरित्र को संरक्षित रख सके। वे परमेश्वर की इच्छा नहीं, अपने ही इच्छा के बारे में सोच रहे थे। इसलिये परमेश्वर ने उन्हें उनकी इच्छानुसार राजा दिया, वह जिसका चरित्र उनके चरित्र का प्रतिबिम्ब था। उनके हृदय परमेश्वर को समर्पित नहीं थे, और उनका राजा भी पवित्र अनुग्रह द्वारा अनियन्त्रित था। इस राजा के राज में उन्होंने वह अनुभव प्राप्त किया जो इस कारण आवश्यक था कि वे अपनी गलती को देख सके और परमेश्वर के प्रति स्वामीभक्ति की और लौट आए।PPHin 665.3

    फिर भी, परमेश्वर ने शाऊल को राज्य का उत्तरदायित्व सौंपकर, उसे अकेला नहीं छोड़ा। उसने पवित्र आत्मा को उस पर उतरने दिया ताकि उस पर उसकी कमजोरियाँ और पवित्र अनुग्रह की उसकी आवश्यकता प्रकट हो सके, और यदि शाऊल ने परमेश्वर पर निर्भर किया होता, तो परमेश्वर उसके साथ होता । जब तक उसकी इच्छा परमेश्वर की इच्छा से नियन्त्रित थी, जब तक वह परमेश्वर के आत्मा के अनुशासन के प्रति समर्पित था, परमेश्वर ने उसके प्रयत्नों को सफलता का ताज पहनाया। लेकिन जब शाऊल ने परमेश्वर के बिना कार्य करने को चुना, प्रभु उसका मार्गदर्शक नहीं रह सकता था और वह उसे एक तरफ करने को विवश हो गया। फिर उसने सिंहासन पर उसे बैठाया “जो उसके मन के अनुसार” था। वह नहीं जो चरित्र में निर्दोष था, लेकिन जो स्वयं पर विश्वास रखने के बजाय परमेश्वर पर निर्भर करता हुआ, उसकी आत्मा द्वारा निर्देशित था और जो पाप करने पर निंदा और सुधार के लिये समर्पित था।PPHin 666.1

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